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________________ धर्म की कसौटी : शास्त्र २९७ "मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्रं विदुर्बुधा :॥"१ जिस प्रकार जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसे उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अन्त:करण में स्थित काम, क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र तथा निर्मल बना देता है। इस प्रकार भगवान् महावीर से लेकर एक हजार से कुछ अधिक वर्ष तक के चिन्तन में शास्त्र की यही एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत हुई कि "जिसके द्वारा आत्मा-परिबोध हो, आत्मा अहिंसा एवं संयम की साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, उस तत्त्वज्ञान को शास्त्र कहा जाता शास्त्र के नाम पर : मानवता के सार्वभौम चिन्तन एवं विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के कारण आज यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि इन शास्त्रों का क्या होगा ? विज्ञान की बात का उत्तर क्या है, इन शास्त्रों के पास ? __ पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जैसी कि हमने शास्त्र की परिभाषा समझी है, वह स्वयं में एक विज्ञान है, सत्य है। तो क्या विज्ञान, विज्ञान को चुनौती दे सकता है ? सत्य सत्य को चुनौती दे सकता है ? नहीं! एक सत्य दूसरे सत्य को काट नहीं सकता, यदि काटता है, तो वह सत्य ही नहीं है। फिर यह मानना चाहिए कि जिन शास्त्रों को हमारा मानवीय चिन्तन तथा प्रत्यक्ष विज्ञान चुनौती देता है, वे शास्त्र नहीं हो सकते. बल्कि वे शास्त्र के नाम पर पलने वाले ग्रन्थ या किताबें मात्र हैं। चाहे वे जैन आगम हैं, या श्रुति-स्मृतियाँ और पुराण हैं, चाहे पिटक हैं या बाइबिल एवं कुरान हैं। मैं पुराने या नये किन्हीं भी विचारों की अन्धप्रतिबद्धता स्वीकार नहीं करता। शास्त्र या श्रुति-स्मृति के नाम पर, आँख मींचकर किसी चीज को सत्य स्वीकार कर लेना, मुझे सह्य नहीं है। मुझे ही क्या, किसी भी चिन्तक को सह्य नहीं है और फिर जो शास्त्र की सर्वमान्य व्यापक कसौटी है, उस पर वे खरे भी तो नहीं उतर रहे हैं। जिन धर्मशास्त्रों ने धर्म के नाम पर पशुहिंसा २ एवं नर बलि का प्रचार किया, ३. मानव-मानव के बीच में घृणा एवं उपेक्षा की दीवारें खड़ी की, क्या वह सत्यदृष्टा ऋषियों का चिन्तन था? मानवजाति के ही एक अंग शूद्र के लिए कहा गया है कि १. योगबिन्दु प्रकरण, २।९ २. यज्ञार्थ पशवः सष्टाः स्वयेव स्वयंभुवा। यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३. वाल्मीकि रामायण (शुनः शेष) बालकाण्ड, सर्ग ६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only —मनुस्मृति, ५। ३९ www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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