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२९८ चिंतन की मनोभूमि वह जीवित श्मशान है, उसकी छाया से भी बचना चाहिए।२ तो क्या अखण्ड मानवीयता की अनुभूति वहाँ पर कुछ भी हुई होगी? जिस नारी ने मातृत्व का महान् गौरव प्राप्त करके समग्र मानव जाति को अपने वात्सल्य से प्रीणित किया, उसके लिए यह कहना कि "न स्त्रीभ्यः कश्चिदन्यवै पापीयस्तरमस्ति वै३ - स्त्रियों से बढ़कर अन्य कोई दुष्ट नहीं है! क्या यह धर्म का अंग हो सकता है ? वर्गसंघर्ष, जातिविद्वेष एवं साम्प्रदायिक घृणा के बीज बोने वाले ग्रन्थों ने जब मानव चेतना को खण्ड-खण्ड करके यह उद्घोष किया कि "अमुक सम्प्रदाय वाले का स्पर्श होने पर शुद्धि के लिए "सचैलो जलमाविशेत्"४. कपड़ों सहित ही पानी में डुबकी लगा लेनी चाहिए—तब क्या उनमें कहीं आत्म-परिबोध की झलक थी?
___ मैंने बताया कि ऋषि वह है जो सत्य का साक्षात्द्रष्टा एवं चिन्तक है, प्राणिमात्र के प्रति जो विराट् आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति कर रहा है क्या उस ऋषि या श्रमण के मुख से कभी ऐसी वाणी फूट सकती है? कभी नहीं! वेद आगम और पिटक जहाँ एक ओर मैत्री का पवित्र उद्घोष कर रहे हैं, क्या उन्हीं के नाम पर, उन्हीं द्रष्टा ऋषि व मुनियों के मुख से मानवविद्वेष की बात कहलाना शास्त्र का गौरव
शास्त्रों के नाम पर जहाँ एक ओर ऐसी बेतुकी बातें कही गईं, वहाँ दूसरी ओर भूगोल-खगोल के सम्बन्ध में भी बड़ी विचित्र, अनर्गल एवं असम्बद्व कल्पनाएँ खड़ी की गई हैं। पृथ्वी, समुद्र, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्र आदि के सम्बन्ध में इतनी मनमोहक किन्तु प्रत्यक्ष-बाधित बातें लिखी गई हैं कि जिनका आज के अनुसन्धानों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता। मैं मानता हूँ कि इस प्रकार की कुछ धारणाएँ उस युग में व्यापक रूप से प्रचलित रही होंगी, श्रुतानुश्रुत परम्परा या अनुमान के आधार पर जैन समाज उन्हें एक-दूसरे तक पहुँचाता आया होगा। पर क्या उन लोकप्रचलित मिथ्या धारणाओं को शास्त्र का रूप दिया जा सकता है ? शास्त्र का उनके साथ क्या सम्बन्ध है ? मध्यकाल के किसी विद्वान ने संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ के रूप में कुछ भी लिख दिया, या पुराने शास्त्रों में अपनी ओर से कुछ नया प्रक्षिप्त कर दिया और किसी कारण उसने वहाँ अपना नाम प्रकट नहीं किया, तो क्या वह शास्त्र हो गया ? उसे धर्मशास्त्र मान
१. वसिष्ठ धर्मसूत्र ४।३ २. यस्तु छायां श्वपाकस्य ब्राह्मणो ह्यधिरोहति। तत्र स्नानं प्रकुर्वीत घृतं प्रास्य विशुध्यति ।
____ अत्रि. २८८-२८९, याज्ञ. २।३० (मिताक्षरा में उद्धृत) ३. महा. अनु. ३८॥ १२ ४.. बौद्धान् पाशुपतांश्चैव लोकायतिकनास्तिकान्।
विकर्मस्थान् द्विजान् स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत्॥ -स्मृतिचन्द्रिका, पृ. ११८
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