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२९२ चिंतन की मनोभूमि __हमारा प्रस्तुत जीवन केवल आत्ममुखी होकर टिक ही नहीं सकता है और न केवल बहिर्मुखी ही रह सकता है। जीवन की दो धाराएँ हैं—पहली बहिरंग, दूसरा अंतरंग। दोनों धाराओं को साथ लेकर चलना, यही तो जीवन की अखण्डता है। वहिरंग जीवन में विशृंखलता नहीं आए, द्वन्द्व नहीं आए, इसके लिए अंतरंग जीवन की दृष्टि अपेक्षित है। अंतरंग जीवन आहार-विहार आदि के रूप में बहिरंग से, शरीर आदि से, सर्वथा निरपेक्ष रहकर चल नहीं सकता, इसलिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। भौतिक और आध्यात्मिक, सर्वथा निरपेक्ष दो अलग-अलग खण्ड नहीं हो सकते, बल्कि दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में साथ लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन सुन्दर, उपयोगी एवं सुखी रह सकता है। इस दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो लगता है आध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान दोनों ही जीवन के अंग हैं, फिर इनमें विरोध और द्वन्द्व की बात क्या रह जाती है ? यही आज का मुख्य प्रश्न है ! शास्त्र बनाम ग्रन्थ :
- भौतिक विज्ञान के कुछ भूगोल-खगोल सम्बन्धी अनुसन्धानों के कारण धर्मग्रन्थों की कुछ मान्यताएँ आज टकरा रही हैं, वे असत्य सिद्ध हो रही हैं और उन ग्रन्थों पर विश्वास करने वाला वर्ग लड़खड़ा रहा है, अनास्था से जूझ रहा है। सैकड़ों वर्षों से चले आए ग्रन्थों और उनके प्रमाणों को एक क्षण में कैसे अस्वीकार कर लें और कैसे विज्ञान के प्रत्यक्षसिद्ध तथ्यों को झुठलाने का दुस्साहस कर लें। बस, यह वैचारिक प्रतिद्वन्द्विता का संघर्ष ही आज धार्मिक मानस में उथल-पुथल मचाए जा रहा है। जहाँ-जहाँ पर परम्परागत वैचारिक प्रतिबद्धता, तर्कहीन विश्वासों की जडता विजयी हो रही है, वहाँ-वहाँ विज्ञान को असत्य, भ्रामक और सर्वनाशी कहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं है। मैं समझता हूँ, इसी भ्रान्ति के कारण विज्ञान को धर्म का विरोधी एवं प्रतिद्वन्द्वी मान लिया गया है, और धार्मिकों की इस अन्धप्रतिबद्धता एवं घृणा के उत्तर में नई दिशा के उग्रविचारकों ने धर्म को एक मादक अफीम करार दिया है। पाखण्ड और असत्य का प्रतिनिधि बता दिया है।
यदि हम संतुलित होकर समझने-सोचने का प्रयत्न करें, तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि तथाकथित धर्मग्रन्थों की मान्यता के साथ विज्ञान के अनुसन्धान क्यों टकरा रहे हैं ? इस सन्दर्भ में दो बातें हमें समझनी होंगी—पहली यह कि शास्त्र की परिभाषा क्या है ? उसका प्रयोजन और प्रतिपाद्य क्या है ? और दूसरी यह कि शास्त्र के नाम पर चले आ रहे प्रत्येक ग्रन्थ, स्मृति, पुराण और अन्य संदर्भ पुस्तकों को अक्षरशः सत्य माने या नहीं? ग्रन्थ और शास्त्र में भेद:
सर्वप्रथम यह समझ लेना चाहिए कि शास्त्र एक पवित्र एवं व्यापक शब्द है, इसकी तुलना में ग्रन्थ का महत्त्व बहुत कम है। यद्यपि शब्दकोष की दृष्टि से ग्रन्थ
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