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________________ धर्म की कसौटी : शास्त्र ! २०३ और शास्त्र को पर्यायवाची शब्द माना गया है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से ऐसा नहीं माना जा सकता। कोई भी शब्द किसी दूसरे शब्द का सर्वथा पर्यायवाची नहीं हो सकता, उनके अर्थ में अवश्य ही मौलिक अन्तर रहता है। शास्त्र और ग्रन्थ को भी मैं इसी प्रकार दो अलग-अलग शब्द मानता हूँ। शास्त्र का सम्बन्ध अन्तर से है, सत्यं शिवं सुन्दरं की साक्षात् अनुभूति से है, स्व-पर कल्याण की मति-गति-कृति से है, जबकि ग्रन्थ के साथ ऐसा नियम नहीं है। शास्त्र सत्य के साक्षात् दर्शन एवं आचरण का उपदेष्टा होता है, जबकि ग्रन्थ इस तथ्य के लिए प्रतिनियत नहीं है। शास्त्र और ग्रन्थ के सम्बन्ध में यह विवेक यदि हमारी बुद्धि में जाग गया है, तो फिर विज्ञान और आध्यात्म में, विज्ञान और धर्म में तथा विज्ञान और शास्त्र में कोई टकराहट नहीं होगी, कोई किसी को असत्य एवं सर्वनाशी सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करेगा। धर्मग्रन्थों के प्रति, चाहे वे जैन सूत्र हैं, चाहे स्मृति और पुराण हैं, आज के बुद्धि-वादी वर्ग में एक उपहास की भावना बन चुकी है, और सामान्य-श्रद्धालु वर्ग में उनके प्रति अनास्था पैदा हो रही है। इसका कारण यही है कि हमने शास्त्र की मूल मर्यादाओं को नहीं समझा, ग्रन्थ का अर्थ नहीं समझा और संस्कृत, प्राकृत में जो भी कोई प्राचीन कहा जाने वाला ग्रन्थ मिला, उसे शास्त्र मान बैठे, भगवद्वाणी मान बैठे, और गले से खूब कस कर बाँध लिया कि यह हमारा धर्मग्रन्थ है, यह ध्रुव सत्य है, इसके विपरीत जो कुछ भी कोई कहता है, वह झूठ है, गलत है। कहते हैं कि सऊदी अरब में सबसे पहले जब टेलीफोन के तार की लाइन डाली जा रही थी तो वहाँ धर्मगुरु मौलवी लोगों ने बड़ा भारी विरोध किया। धार्मिक जनता को भड़काया कि यह शैतान का काम है, कुरान शरीफ के हुक्म के खिलाफ है। वाद-विवाद उग्र हो चला, इधर-उधर उत्तेजना फैलने लगी तो वहाँ के तत्कालीन बुद्धिमान बादशाह इन सऊदी ने फैसला दिया कि -"इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि दरअसल ही यह शैतान का काम है या नहीं। इसके लिए दो मौलानाओं को नियत किया गया कि वे क्रमश: टेलीफोन पर कुरान की आयतें पढ़ें । यदि शैतान का काम होगा, तो वे पवित्र आयतें तार से उस पार सुनाई नहीं देंगी, और यदि सुनाई दी, तो वह शैतान का काम नहीं होगा।" आप जान सकते हैं, क्या प्रमाणित हुआ? वही प्रमाणित हुआ, जो प्रमाणित हो सकता था। सत्य के समक्ष भ्रान्त धारणाओं के दावे कब तक टिक सकते हैं ? धर्मग्रन्थों के प्रति इस प्रकार का जो विवेकहीन बँधा-बँधाया दृष्टिकोण है, वह केवल भारत को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण धार्मिक विश्व को जकड़े हुए है। यह सब कब से चला आ रहा है, कहा नहीं जा सकता। ग्रन्थों से चिपटे रहने की इस जड़ता ने कितने वैज्ञानिकों को मौत के घाट उतरवाया, कितनों को देशत्याग करवाया ? यह इतिहास के पृष्ठों पर आज भी पढ़ा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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