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________________ आत्म-जागरण २८७ नहीं रहती कि लक्ष्य अब कितना दूर रहा है। वह तो चलता ही रहता है, एक न एक दिन लक्ष्य मिलेगा ही, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। संकल्प सही है तो वह पूरा होकर ही रहेगा। उसके लिए प्रयत्न अवश्य किया जाता है, परन्तु समय की सीमा नहीं होती। मृत्यु का भय भी नहीं होता। संकल्प लेकर चलने वाले के लिए मृत्यु सिर्फ एक विश्राम है। एक पटाक्षेप है। वह यहाँ भी चलता रहा है, नया जन्म धारण करेगा तो वहाँ भी उसकी यात्रा रुकेगी नहीं, मार्ग बदलेगा नहीं, वह फिर अगली मंजिल तय करने को साहस के साथ चल पड़ेगा। भगवान् महावीर ने कहा है-साधक! तुम अपनी यात्रा के महापथ पर चलतेचलते रुक जाते हो तो कोई भय नहीं, पैर लड़खड़ा जाते हैं तो घबराने की कोई बात नहीं, संकल्प से डिगो मत, बैठो मत, वापस लौटो मत! चलते रहो! निरन्तर चलते रहो! चलते रहो! __बालक चलता है, लड़खड़ाकर गिर भी जाता है, उठता है और फिर गिरता है। पर उसकी चिन्ता नहीं की जाती। चरण सध जाएँगे तो एक दिन वही विश्व की दौड़ में सर्वश्रेष्ठ होकर आगे आ जाएगा। मतलब यह है कि जो चलता है, वह एक दिन मंजिल पर अवश्य पहुँचता है, किन्तु जो मार्ग में हार कर बैठ जाता है, वह कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। साधक को संकल्प की लौ जलाकर चलते रहना है, बढ़ते रहना है। फिर उसकी यात्रा अधूरी नहीं रहेगी, उसका संकल्प असफल नहीं रहेगा। एक विचारक ने कहा है कि यदि तुम्हारी यह शिकायत है कि इच्छा पूरी नहीं हुई, तो इसका मतलब है कि तुम्हारी इच्छा पूरी थी ही नहीं, अधूरी इच्छा लेकर ही तुम आए थे। पूरी इच्छा एक दिन अवश्य पूरी होती है। वह भीतर से अपने आप बल जाग्रत करती हुई पूर्णता की ओर बढ़ी चली जाती है। पूरी इच्छा में स्वतः ही बल जाग्रत हो जाता है। सच्ची निष्ठा : _ हमारे भारतवर्ष में आज के साधक-जीवन की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह चलता तो है, पर उसके चरण में श्रद्धा और निष्ठा का बल नहीं होता। चलने की सच्ची भूख उसमें नहीं जग पाती। कर्म करता जाता है, किन्तु सच्ची निष्ठा उसके अन्दर जाग्रत नहीं होती। ऐसे चलता है, जैसे घसीटा जा रहा हो, संशय, भय, अविश्वास के पद-पद पर लड़खड़ाता-सा । ऐसा लगता है कि कोई जीर्ण-शीर्ण दीवार है, अभी एक धक्के से गिर पड़ेगी, कोई सूखा वृक्ष कंकाल है, जो हवा के किसी एक झोंके से भूमिसात् हो जाएगा। किंतु जिसके अंदर सच्ची निष्ठा का बल है, वह महापराक्रमी वीर की भाँति सदा सीना ताने, आगे ही आगे बढ़ता जाता है और मंजिल एक दिन उसके पाँव चूमती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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