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________________ | २८४ चिंतन की मनोभूमि हमारी सबसे ऊँची मंजिल है, परमात्मपद। वह शिखर जहाँ पहुँचने के बाद वापिस नहीं लौटना होता। इस महान् पथ पर हमें तब तक चलना है, जब तक कि मंजिल को नहीं पा लें। हम वे यात्री हैं जिनको सतत चलना ही चलना होता है, बीच में कहीं विश्राम नहीं होता । महाकवि जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही कहा है.-.. "इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत-भवन में टिक रहना। किन्तु पहुँचना उस सीमा पर, जिसके आगे राह नहीं।" मार्ग में सतत चलना है, जब तक कि अपना लक्ष्य नहीं आ जाए। कहीं हरेभरे उपवन की मादकता भी आएगी और कहीं सूखे पतझड़ का रूखापन भी। किन्तु हमें दोनों मार्गों से ही समभाव पूर्वक गुजरना है। कहीं अटकना नहीं है। स्वर्ग की लुभावनी सुषमा और नरक की दारुण यातना—दोनों पर ही विजय पाकर हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना है। सर्वत्र हमें अपने प्रकाश-दीप-सम्यक् दर्शन को छोड़ना नहीं है। सम्यक् दर्शन ही हमारे मार्ग का दीपक है। एक जैनाचार्य ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई यह शर्त रखे कि तम्हें स्वर्ग मिलेगा, और दूसरी ओर यह बात कि यदि सम्यक् दर्शन पाते हैं, तो नरक की ज्वाला में जलना पड़ेगा, उसकी भयंकर गन्दगी में सड़ना पड़ेगा, तो हमें इन दोनों बातों में से दूसरी बात ही मंजूर हो सकती है। मिथ्यात्व की भूमिका में स्वर्ग भी हमारे किसी काम का नहीं, जबकि सम्यक् दर्शन के साथ नरक भी हमें स्वीकार है। आचार्य की इस उक्ति में लक्ष्य के प्रति कितना दीवानापन है। निछावर होने की कितनी बड़ी प्रबल भावना है। इसके पीछे सिद्धान्त का दष्टिकोण, जिसे कि आचार्यों ने कहा है वह यह है कि हमें नरक और स्वर्ग से, सुख और दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो परमात्मशक्ति के दर्शन से है। या यों कहिए कि आत्मशक्ति के दर्शन से है, सम्यक् दर्शन से है। जीवन की यात्रा में सुख-दुःख यथाप्रसंग दोनों आते हैं, परन्तु हमें इन दोनों से परे रहकर चलने की आवश्यकता है। यदि मार्ग में कहीं विश्राम करना हो, तो कोई बात नहीं, कुछ समय के लिए अटक गए, विश्राम किया, किन्तु फिर आगे चल दिए। कहीं डेरा डाल कर नहीं बैठना है। चलते रहना ही हमारा मन्त्र है। ब्राह्मण ग्रन्थों में एक मन्त्र आता है ....... चरैवेति, चरैवेति।" चलते रहो. चलते रहो। कर्त्तव्य-पथ में सोने वाले के लिए कलियुग है, जम्हाई लेने वाले के लिए द्वापर है, उठ बैठने वाले के लिए त्रेता है और पथ पर चल पड़ने वाले के लिए सतयुग है, इसलिए चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने वाले के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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