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________________ आत्म-जागरण २८३ विशुद्ध आत्म-छवि से होड़ करता है, उसका मिलान करता है, तुलना करता है और उस निर्मलता के समक्ष अपनी मलिनता का ज्ञान प्राप्त करता है। जब तक घटियाबढ़िया दो वस्तुओं को बराबर में रखकर तुलनात्मक परीक्षण नहीं किया जाए, तब तक उनकी वास्तविकता नहीं खुलती। साधक जब दूर-दूर तक अपनी दृष्टि को ले जाता है और देख लेता है कि अब परमात्मा की छवि में और मेरी छवि में कोई भेद नहीं दीखता है, तो फिर वह लौटकर अपने अन्दर में समा जाता है। वह बाहर से भीतर आ जाता है, स्थूल से सूक्ष्म की ओर आ जाता है और तब वह 'नमस्तुभ्यं' की जगह 'नमोमां' की धुन लगा बैठता है। लक्ष्य की ओर : साधकों के जीवन वृत्त से और उनकी समस्याओं से मालूम होता है कि हर एक साधक के लिए यह सरल नहीं है कि वह झटपट 'नमस्तुभ्यं' से मुड़कर 'नमोमां' की ओर आ जाए। शास्त्रों में इन दोनों ही विषयों की चर्चा की गई है। हमारे पास शास्त्र-पुराण, काव्य आदि की कोई कमी नहीं है, उनका बहुत विशाल भण्डार है, साधारण साधक की बुद्धि तो उसमें उलझ जाती है, उसके लिए शास्त्र एक बीहड़ जंगल के समान होता है। पृथ्वी के जंगलों की एक सीमा होती है, किन्तु शब्दों और शास्त्रों के महावन की कोई सीमा नहीं है। इस असीम कानन में हजारों यात्री भटक गए हैं, नए यात्री भटकते हैं सो तो है ही, किन्तु पुराने और अनुभवी कहे जाने वाले साधक भी कभी-कभी दिग्मूढ़ हो जाते हैं। शास्त्रों में उदाहरण आता है कि कोई-कोई साधक चौदह पूर्व का ज्ञान पाकर भी इस शास्त्र-वन में भटक जाते हैं। आचार्य शंकर ने एक जगह कहा है "शब्दजालं महारण्यं, चित्त-भ्रमण कारणम्॥" । शब्दों का यह महावन इतना भयंकर है कि एक बार भटक जाने के बाद निकलना कठिन हो जाता है। इसलिए हमें शास्त्रचर्चा की अपेक्षा अनुभव की बात करनी चाहिए। भक्ति मार्ग एक उपवन है, जिसमें घूमने के लिए सहज आकर्षण रहता है, लेकिन हमेशा ही बगीचे में घूमते रहना तौ उपयुक्त नहीं है। पड़ोसी से बात करने के लिए जब कोई घर का द्वार खोलकर बाहर जाता है, तो वह बाहर ही नहीं रह जाता, बल्कि लौटकर पुनः घर में आता है, इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत् में भी हमारी स्थिति सिर्फ बाहर चक्कर लगाते रहने की ही नहीं है, हमें लौटकर अपने घर में आना चाहिए। चिरकाल तक हम बाहर घूमे हैं, इसलिए हम अपने घर में भी अनजाने से हो गए हैं। इसके लिए आत्मज्ञान की लौ जगाकर अपने घर को देखना होगा। आत्मविश्वासपूर्वक अपनी अनन्त शक्तियों का ज्ञान करना होगा। मंजिल और मार्ग : सबसे पहले यह जानना होगा कि हमारी मंजिल क्या है ? और उसका मार्ग क्या है ? हमें कहाँ जाना है, और कहाँ जा रहे हैं, यह निर्धारित करना होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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