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________________ ३२ भक्ति मार्ग के एक यशस्वी आचार्य ने कभी तरंग में आकर गाया था " नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं नमोनमः । नमो मह्यं नमो मह्यं, ममेव नमोनमः ॥" आत्म- जागरण श्लोक के पूर्वार्द्ध में आचार्य किसी बाह्य शक्ति के चरणों में सिर झुका रहे हैं । इसलिए वे बार बार 'तेरे चरणों में नमस्कार' की रट लगा रहे हैं, वे द्वैत के प्रवाह में बह रहे हैं। ऐसा लगता है कि भक्त कहीं बाहर में खड़े भगवान् को रिझाने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान् रूठा हुआ है और वह भक्त से बार-बार वन्दना एवं प्रशस्ति की माँग कर रहा है । किन्तु श्लोक का उत्तरार्द्ध आते ही, लगता है, भक्त की आत्मा जाग्रत हो जाती है, वह सम्भल जाता है" अरे ! मैं किसे वन्दना करता हूँ ? मेरा भगवान् बाहर कहाँ है ? मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारा या उपाश्रय से मेरा क्या सम्बन्ध है ? मेरा भगवान् तो मेरे भीतर ही बैठा है। मैं ही तो मेरा भगवान् हूँ। अपने को ही नमस्कार करना चाहिए ।" इस स्थिति में वह उत्तरार्द्ध पर आते-आते बोल उठता है T ――― "नमो मह्यं नमो मह्यं, मह्यमेव नमोनमः ।" मुझे ही मेरा नमस्कार है । अपने को अपना नमस्कार करने का अर्थ है कि साधक आत्म- जाग्रति के पथ पर आता है, चूँकि उसकी आत्मा और परमात्मा के बीच की खाई पाटने वाला तत्त्व अब स्पष्ट होने लग जाता है । वह भेद से अभेद की ओर, द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ चलता है। Jain Education International अद्वैत की भूमिका : भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ और साधनाएँ इसी आदर्श पर चलती आई हैं। वे द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ी हैं, स्थूल से सूक्ष्म की ओर मुड़ी हैं। बच्चे को जब सर्वप्रथम वर्णमाला सिखाई जाती है, तो आरम्भ में उसे बड़े-बड़े अक्षरों के द्वारा अक्षर - परिचय कराया जाता है, जब वह उन्हें पहचानने लग जाता है तो छोटे अक्षर पढ़ाए जाते हैं और बाद में संयुक्त अक्षर । यदि प्रारम्भ से ही उसे सूक्ष्म व संयुक्त अक्षरों की किताब दे दें, तो वह पढ़ नहीं सकेगा, उलटे इस पढ़ाई से ऊब जाएगा । यही दशा साधक की है। प्रारम्भ में उसे द्वैत की साधना पर चलाया जाता है । बहिःस्थ प्रभु की वन्दना, स्तुति आदि के द्वारा अपने भीतर में सोए हुए प्रभु को जगाया जाता है I साधक अपनी दुर्बलताओं, गलतियों का ज्ञान करके उन्हें प्रभु के समक्ष प्रकाशित करता है। प्रकाशित करने का तो एक बाह्य भाव समझिए; वास्तव में तो वह प्रभु की निर्मल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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