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२८० चिंतन की मनोभूमि
आध्यात्म, जो बहुत प्राचीन काल में धर्म का ही एक आन्तरिक अंग था, जीवन-विशुद्धि का सर्वांगीण रूप है । आध्यात्म मानव की अनुभूति के मूल आधार को खोजता है, उसका परिशोधन एवं परिष्कार करता है । 'स्व' जो कि 'स्वयं' से विस्मृत है, आध्यात्म इस विस्मरण को तोड़ता है। 'स्व' स्वयं ही जो अपने 'स्व' के अज्ञान तमस् का शरणस्थल बन गया है, आध्यात्म इस अन्धतमस् को ध्वस्त करता है, स्वरूप स्मृति की दिव्य ज्योति जलाता है । आध्यात्म अन्दर में सोये हुए ईश्वरत्व को जगाता है, उसे प्रकाश में लाता है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के आवरणों की गन्दी परतों को हटाकर साधक को उसके अपने शुद्ध 'स्व' तक पहुँचाता है, उसे अपना अन्तर्दर्शन कराता है। आध्यात्म का आरम्भ 'स्व' को जानने और पाने की बहुत गहरी जिज्ञासा से होता है, और अन्तत ः 'स्व' के पूर्ण बोध में, 'स्व' की पूर्ण उपलब्धि में इसकी परिसमाप्ति है ।
आध्यात्म किसी विशिष्ट पंथ या सम्प्रदाय की मान्यताओं में विवेक- शून्य अंध-विश्वास और उनका अन्ध- अनुपालन नहीं है। दो-चार-पाँच परम्परागत नीति नियमों का पालन आध्यात्म नहीं है, क्योंकि यह अमुक क्रियाकाण्डों की, अमुक विधिनिषेधों की कोई प्रदर्शनी नहीं है और न यह कोई देश, धर्म और समाज की देश कालानुसार बदलती रहने वाली व्यवस्था का ही कोई रूप है । यह एक आन्तरिक प्रयोग है, जो जीवन को सच्चे एवं अविनाशी सहज आनन्द से भर देता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो जीवन को शुभाशुभ के बन्धनों से मुक्त कर देती है, 'स्व' की शक्ति को विघटित होने से बचाती है। आध्यात्म, जीवन की अशुभ शक्तियों को शुद्ध स्थिति में रूपान्तरित करने वाला अमोघ रसायन है, अतः यह अन्तर की प्रसुप्त विशुद्ध शक्तियों को प्रबुद्ध करने का एक सफल आयाम है । आध्यात्म का उद्देश्य, औचित्य की स्थापना मात्र नहीं है, प्रत्युत शाश्वत एवं शुद्ध जीवन के अनन्त सत्य को प्रकट करना है । आध्यात्म कोरा स्वप्निल आदर्श नहीं है । यह तो जीवन का वह जीता-जागता यथार्थ है, जो 'स्व' को 'स्व' पर केन्द्रित करने का, निज को निज में समाहित करने का पथ प्रशस्त करता है।
आध्यात्म को, धर्म से अलग स्थिति इसलिए दी गई है कि आज का धर्म कोरा व्यवहार बन कर रह गया है, बाह्याचार के जंगल में भटक गया है, जबकि आध्यात्म अब भी अपने निश्चय के अर्थ पर समारूढ़ है । व्यवहार बहिर्मुख होता है और निश्चय अन्तर्मुख । अन्तर्मुख अर्थात् स्वाभिमुख । आध्यात्म की सर्वेसर्वा 'स्व' है, चैतन्य है । परम चैतन्य के शुद्ध स्वरूप की ज्ञप्ति और प्राप्ति ही आध्यात्म का मूल
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