________________
धर्म और जीवन २७९ किन्तु देखना तो यह है कि वे अन्दर में क्या थे ? सुख-दुःख का कर्ता-भोक्ता विकल्पात्मक स्थिति में होता है, केवल द्रष्टा ही है, जो शुद्ध निर्विकल्पात्मक ज्ञान चेतना का प्रकाश प्राप्त करता है। धर्म, दर्शन और आध्यात्म :
धर्म, दर्शन और आध्यात्म का प्रायः समान अर्थ में प्रयोग किया जाता है, किन्तु गहराई से विचार करें तो इन तीनों का मूल अर्थ भिन्न है। अर्थ ही नहीं, क्षेत्र भी भिन्न है।
धर्म का सम्बन्ध आचार से है। 'आचारः प्रथमो धर्मः।' यह ठीक है कि बहुत पहले धर्म का सम्बन्ध अन्दर और बाहर दोनों प्रकार के आचारों से था और इस प्रकार आध्यात्म भी धर्म का ही एक आन्तरिक रूप था। इसीलिए प्राचीन जैन ग्रन्थों में धर्म के दो रूप बताए गए हैं–निश्चय और व्यवहार। निश्चय अन्दर में 'स्व' की शुद्धानुभूति एवं शुद्धोपलब्धि है, जबकि व्यवहार बाह्य क्रियाकाण्ड है, बाह्याचार का विधि निषेध है। निश्चय त्रिकालाबाधित सत्य है, वह देश काल की बदलती हुई परिस्थितियों से भिन्न होता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक होता है। व्यवहार, चूँकि बाह्य आचार-विचार पर आधारित है। अतः वह देशकाल के अनुसार बदलता रहता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक नहीं होता। दिनांक तो नहीं बताया जा सकता, परन्तु काफी समय से धर्म अपनी अन्तर्मुख स्थिति से दूर हटकर बहिर्मुख स्थिति में आ गया है। आज धर्म का अर्थ विभिन्न सम्प्रदायों का बाह्याचार सम्बन्धी विधि-निषेध ही रह गया है। धर्म की व्याख्या करते समय प्रायः हर मत और पन्थ के लोग अपने परम्परागत विधिनिषेध सम्बन्धी क्रियाकाण्डों को ही उपस्थित करते हैं और उन्हीं के आधार पर अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करते हैं। इसका यह अर्थ है कि धर्म अपने व्यापक अर्थ को खोकर केवल एक क्षरणशील संकुचित अर्थ में आबद्ध हो गया है। अतः आज के मनीषी, धर्म से अभिप्राय, मत-पंथों के अमुक बँधे-बँधाये आचारविचार से लेते हैं, अन्य कुछ नहीं।
___ दर्शन का अर्थ तत्त्वों की मीमांसा एवं विवेचना है। दर्शन का क्षेत्र है-सत्य का परीक्षण। जीव और जगत् एक गूढ़ पहेली है, इस पहेली को सुलझाना ही दर्शन का कार्य है। दर्शन प्रकृति और पुरुष, लोक और परलोक, आत्मा और परमात्मा, दृष्ट और अदृष्ट में, यह और वह आदि रहस्यों का उद्घाटन करने वाला है। वह सत्य और तथ्य का सही मूल्यांकन करता है। दर्शन ही वह दिव्यचक्ष है, जो इधर-उधर की नयी-पुरानी मान्यताओं के सघन आवरणों को भेदकर सत्य के मूलरूप का साक्षात्कार कराता है। दर्शन के बिना धर्म अन्धा है और फिर अन्धा गन्तव्य पर पहुँचे तो कैसे पहुँचे ? पथ के टेढ़े-मेढ़े घुमाव, गहरे गर्त और आस-पास के खतरनाक याड़ झंखाड़ बीच में कहीं भी अन्धे यात्री को निगल सकते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org