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धर्म और जीवन २७५ चांडाल पुत्र हरिकेश मुनि बना और साधना का तेज बढ़ाने लगा, तो उसका तप- -तेज इतना उग्र और विशाल हुआ कि देवता भी उसकी चरण धूलि लेने को पीछे-पीछे फिरने लगे । एक दिन जिसका कोई नहीं था, उसी को एक दिन देवता सादर नमस्कार करने लगे। वह शक्ति, वह साधना कहीं बाहर से नहीं आई, किन्तु उसी के अन्तरतम में छिपी दिव्य शक्ति का विकास था, वह । जब अन्तर का देवता जग गया, उसकी अमिट शक्ति का, परम तेज का आलोक इधर-उधर जगमगाने लग गया, तो संसार के देवता अपने आप चरणों में दौड़े आए ।..
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जब तक प्राणी परभाव में चलता है, तब तक उसकी गति अधोमुखी होती है। वह समझ नहीं पाता कि देवता बड़ा है या मैं बड़ा हूँ। अपने जीवन को पशु की तरह गुजारता हुआ वह सदा भटकता रहता है, गिड़गिड़ाता रहता है । किन्तु जब अपना बोध होता है, अन्तर का ऐश्वर्य और तेज निखरता है, तो फिर किसी अन्य के द्वार पर जाने की जरूरत नहीं रहती । यहाँ तक कि भगवान् के द्वार पर भी भक्त नहीं जाता, बल्कि भगवान् ही भक्त के पीछे-पीछे दौड़ता है । भारतवर्ष का एक साधक जिसमें विचित्र प्रकार का आत्म- गौरव और आत्म- तेज जगा था, उसने भक्तों से कहा है कि तुम क्यों भगवान् के पीछे पड़े हो ? यदि तुम सच्चे भक्त हो, तुम्हारे पास सच्चा धर्म है, धर्म के प्रति अंतर में वास्तविक आनन्द और उल्लास है, तो भगवान् स्वयं तुम्हारे पास आयेगा ।
"मन ऐसा निर्मल भया, जैसा गंगा-नीर । पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर-कबीर ॥ "
यह साधक की मस्ती का गीत है । जब मन का दर्पण निर्मल हो गया, उसमें भगवत्स्वरूप प्रतिबिम्बित होने लगा, तो साधक को कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। साधना के दृढ़ आसन पर बैठने वाले के समक्ष संसार का समग्र वैभव, ऐश्वर्य और शासन केन्द्रित हो जाता है और तब वह अपना भगवान्, अपना स्वामी खुद हो जाता है। उसे फिर दूसरों की कोई अपेक्षा नहीं रहती ।
अपना नाथ :
भगवान् महावीर के समय में अनाथी नाम के एक मुनि हो गए हैं। वे अपने घर में• विपुल वैभव और ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति थे । विशाल वैभव, माता-पिता का कोमल स्नेह, पत्नी का अनन्य प्रेम—इन सबको ठुकराकर उन्होंने साधना का मार्ग स्वीकार किया और राजगृह के शैल-शिखरों की छाया में, लहलहाते वनप्रदेश में जाकर सजीव चट्टान की तरह साधना में स्थिर होकर खड़े हो गए। भगवान् महावीर ने उसके अन्तर में त्याग और साधना के दिव्य सौन्दर्य को देखा। किन्तु जब राजा श्रेणिक ने उसे देखा, तो उसका दृष्टिकोण उसके बाह्य रूप एवं यौवन के सौन्दर्य पर ही अटका रह गया और उसी पर मुग्ध हो गया । श्रेणिक के मन में विचार आया कि यह युवक साधना के मार्ग पर क्यों आया है ? उसने युवक से साधु बनने का कारण
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