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________________ २७४ चिंतन की मनोभूमि मिटाएगा । वृक्ष से छाया की याचना करना मूर्खता है । उसी प्रकार संसार के मरुस्थल में भटकते-भटकते अनादिकाल बीत गया। कभी समय आया कि सद्गुणों का धर्ता सद्गुरु मिल गया, सद्गुणों का उपदेश मिल गया, एक तरह से कल्पवृक्ष ही मिल गया और धर्मरूप कल्पवृक्ष की शीतल छाया में आप आ गए, तो बस आपका कर्त्तव्य पूरा हो गया । उसकी छाया में आना आपका कर्त्तव्य है, इसके बाद फल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने की जरूरत नहीं । छाया में आने का फल अपने आप प्राप्त हो जाता है । धर्म से दूर रहकर सिर्फ दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए प्रार्थना करता रहे, तो उससे कुछ मिलने का नहीं है। यदि आप धर्म की शीतल छाया में आकर बैठ गये तो फिर आपके भव-ताप को मिटाकर शान्ति प्रदान करने की जिम्मेदारी धर्म की है । अतः धर्म की छाया में निष्काम भाव से आकर बैठने की आवश्यकता है । भय एवं प्रलोभन, फल आशंका की भावना को हटाकर निष्काम भाव से धर्म की छाया में बैठे रहो, अपने आप दुःखों से त्राण मिल जाएगा। अन्तर का देवता : एक उक्ति है कि स्वर्ग के लिए प्रयत्न करने वालों को स्वर्ग नहीं मिलता। देवताओं के पीछे भटकने वाले पर देवता प्रसन्न नहीं होते। भगवान् महावीर का जन्म् जिस युग में हुआ था, उस युग में लोग दुःखों से मुक्ति पाने के लिए देवी-देवताओं की मनौती करते थे, उनकी स्तुति, सेवा आदि करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते थे। ऐसे युग में भगवान् महावीर ने उन साधकों को सावधान किया था, जो आँख बन्द कर देवताओं के पीछे दौड़ रहे थे । भगवान् महावीर ने कहा--' साधक देवताओं के लिए नहीं है, किन्तु देवता साधकों के लिए हैं। 'साधक देवता के चरणों में नहीं, अपितु देवता ही साधक के चरणों में नमस्कार करते हैं।' उन्होंने आध्यात्मिक जीवन की भूमिका स्पष्ट करते हुए बतलाया कि 'देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सयामणो । ' देवता उसे नमस्कार करते हैं, जिसका मन धर्म में अर्थात् अपने स्वरूप में रमण करता है। हमलोग देवता को बहुत बड़ी हस्ती समझ बैठे हैं, किन्तु मनुष्य के सामने देवता का कोई मूल्य नहीं है। देवता तो स्वयं मनुष्य रूप में जन्म लेकर आध्यात्मिक साधना करने के लिए लालायित रहते हैं । एक नहीं, कोटि-कोटि देवता आध्यात्मिक साधक की सेवा में संलग्न रहकर अपना अहोभाग्य समझते हैं । चांडाल पुत्र हरिकेश को अपने प्रारम्भिक जीवन में कितनी पीड़ाएँ और कितनी दारुण यातनाएँ सहनी पड़ी थीं । परन्तु धर्म में अपने मन को उतारने के बाद वही १. छया तरुं संश्रयतः स्यात् । किं छायया याचितयाऽत्मलाभः ॥ Jain Education International For-Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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