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________________ धर्म और जीवन २७३ भय है, उसी प्रकार स्वर्गादिक प्राप्ति की कामना भी एक तीव्र आसक्ति है। दोनों ही मोहनीय कर्म के उदय का फल हैं इसके पीछे मनोवैज्ञानिक पहलू यह है कि जो भय एवं प्रलोभन के कारण (चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक ) साधना-पथ पर चरण बढ़ाता है, वह उस भय एवं प्रलोभन की भावना के हटते ही साधना - पथ को छोड़कर दूर हो जाता है। चूँकि यह निश्चित है कि जो जिस कारण से प्रेरित होकर कार्य करता है, उस कारण के हटते ही वह कार्य भी अवरुद्ध हो जाएगा। इस प्रकार उस साधना के पीछे सहज निष्ठा और ईमानदारी की भावना नहीं रहती, प्राणार्पण की वृत्ति नहीं रहती, बल्कि सिर्फ सामायिक एवं तात्कालिक आवेश और लाभ की भावना रहती है। ऐसा व्यक्ति साधना के क्षेत्र में सतत आनंदित नहीं रह सकता । साधना का तेज और उल्लास उसके चेहरे पर दमकता नजर नहीं आता । साधना की अग्नि में आत्मा की शुद्धि और उसकी पवित्रता एवं निर्मलता कुछ ऐसी हो कि वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में उसकी निर्मल ज्योति निखरे । उसमें आनन्द एवं रस का प्रवाह बहे । एक महान् आचार्य ने साधक को सम्बोधित करते हुए कहा कि तू साधना के क्षेत्र में आया है। भगवान् का स्मरण एवं जप आदि करता है, परन्तु उसके फलस्वरूप यदि किसी प्रकार के फलविशेष की माँग उपस्थित करता है, तो इस प्रकार स्वयं ही आदान-प्रदान और प्रतिफल निश्चित करने का तुझे कोई अधिकार नहीं है। तू तो बस साधना कर । उसके लिए सिद्धि की लालसा क्यों करता है ? उसके फल के प्रति क्यों आसक्त रहता है ? फल की कामना से की गई साधना वास्तव में शुद्ध साधना नहीं कहलाती है। शास्त्रों में कहा है'सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था १ भगवान् ने निष्काम साधना (अनिदान वृत्ति ) की प्रशंसा की है। एक सुप्रसिद्ध आचार्य ने भगवान् की स्तुति करते हुए कहा है कि 'हे भगवन् । मैंने जो भी आपकी प्रार्थना एवं स्तुति की है, आप के श्री चरणों में जो भी श्रद्धा पुष्प चढ़ाए हैं, वे कोई शेर, सर्प, चोर, जल, अग्नि, व्याधि, नरक आदि दुःखों से बचने के लिए नहीं चढ़ाये हैं, बल्कि मेरे अन्तर मन में आपका दिव्य प्रकाश जगमगाए और मैं प्रभुमय बन जाऊँ, बस मेरी श्रद्धांजलि इतने ही अर्थ में कृतार्थ हो जाएगी ।' यदि कोई चिलचिलाती धूप में तप रहा हो, रेगिस्तान की तन झुलसती गर्मी में जल रहा हो, और पास में कोई हरा-भरा छायादार वृक्ष खड़ा हो तो यात्री को वृक्ष से छाया एवं शीलता प्रदान करने की प्रार्थना नहीं करनी पड़ती। बस छाया में जाकर बैठने की आवश्यकता है। बैठते ही शीतलता प्राप्त हो जाएगी। किन्तु यदि वह दूर खड़ा खड़ा सिर्फ वृक्ष से छाया की केवल याचना करता रहे, तो वृक्ष कभी भी निकट आकर छाया नहीं देगा, ताप नहीं दशाश्रुत स्कन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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