________________
२७२ चिंतन की मनोभूमि नहीं कर सकता। जीवन की रस धारा एवं निर्भयता का आनन्द नहीं ले सकता और न ही धर्म का स्वस्थ उल्लास ही कभी उसके मुख पर उभर सकता है।
भारतीय दर्शनों में नरक की पीड़ाओं और यातनाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है, और कहा गया है कि धर्म उनसे मुक्ति दिलाता है। किन्तु यदि नरक की दारुण यातनाओं और पीड़ाओं से घबरा कर व्यक्तिगत मुक्ति पाने के लिए ही हम धर्म की शरण लेते हैं, तो यह स्थिति उस बच्चे की स्थिति के समान हुई, जो गली में कुत्ते के डर से रोता-चिल्लाता और भागता हुआ माता की गोद में आकर चिपक जाता है। बच्चे की इस दौड़ में प्रेम का रस नहीं है। वह माता-पिता की गोद में प्रेमवश नहीं गया है, बल्कि कुत्ते के भय से घबराकर गया है। यदि कुत्ते का भय नहीं होता तो वह दिन भर गली में खेलता रहता। माता के बुलाने पर भी खेल छोड़कर नहीं आता। आज इसी बच्चे के समान हजारों साधकों की स्थिति है। वे साधक संसार के दुःखों, कष्टों और यातनाओं के भय से भागकर भगवान् और धर्म की गोद में दौड़े आ रहे हैं। भजन, ध्यान आदि का क्रम चल रहा है जरूर, किन्तु ये सब नरक आदि के दुःखरूप कुत्तों के डर से भागकर धर्म और साधना की गोद में जाने जैसी ही क्रियाएँ हैं। उनके सामने भगवान् का, धर्म का प्रेम नहीं है बल्कि नरक के कुत्ते का डर है। वही एक डर उनकी आँखों में छाया हुआ है। उन्हें उस भय से, उन दु:खों और कष्टों से मुक्ति चाहिए और कुछ नहीं। किन्तु भारतवर्ष के विचारशील आचार्यों ने, सुविज्ञ मनीषियों ने कहा है कि इस प्रकार कष्टों, दु:खों और पीड़ाओं से आतंकित, भयप्रताड़ित एवं विक्षुब्ध होकर त्राण पाने की चेष्टा में धर्माराधन करने वाला व्यक्ति मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जो भय और पीड़ाओं से संत्रस्त एवं व्याकुल होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करता है, उसे मुक्ति नहीं मिल पाती। भय तो स्वयं कर्म विशेष के उदय भाव का द्योतक है। वह मोहनीय कार्य का एक अंग है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन में हो, या परलोक सम्बन्धी पीड़ाओं और दुःखों की कल्पना से उद्भूत हुआ हो, अथवा भूतकाल की यातनाओं और संकटों के स्मरण से उत्पन्न हुआ हो, भय आखिर भय है। भय की जाति एक ही है। भयगर्भित धर्म एवं दुःखजनित वैराग्य साधना के मार्ग को प्रशस्त नहीं बना सकते। इसीलिए आचार्यों ने कहा है
__"नो इहलोगासंसप्पओगो।
__नो परलोगासंसप्पओगो॥" वर्तमान जीवन की आशंसा प्रलोभन को छोड़ो और परलोक की आशंसा प्रलोभन को भी छोड़ो। दुःख और सुख, जीवन और मरण के बीच का जो मार्ग है, उस पर बढ़ो। वह साधना का सही मार्ग है। जैन-दर्शन ने जिस प्रकार भय, प्रताडित भावनाओं को हेय माना है, उसी प्रकार लोभाकुल विचारों को भी निकृष्ट कोटि पर रखा गया है। साधना के पीछे दोनों ही नहीं होने चाहिए। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन भी मनुष्य को दिग्मूढ़ कर देता है। जिस प्रकार सात भय में परलोक का भय भी एक
Jain Education International
.For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org