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________________ २७६ चिंतन की मनोभूमि पूछा, तो युवक ने नम्र भाव से उत्तर दिया "राजन्। मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई सहारा नहीं था इसलिए मुनि बन गया।" श्रेणिक ने इस उत्तर को अपने दृष्टिकोण से नापा कि युवक गरीब होगा, अतएव अभावों और कष्टों से प्रताड़ित होकर गृहस्थ जीवन से भाग आया है। राजा के मन में एक सिहरन हुई कि न जाने इस प्रकार कितने होनहार युवक अभावों से ग्रस्त होकर साधु बन जाते हैं और ये उभरती तरुणाइयाँ, जिनमें जीवन का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है, यों ही बर्बाद हो जाती हैं। श्रेणिक इन विचारों की उधेडबुन में कुछ देर खोया-खोया-सा रहा और फिर युवक की आँखों में झाँकता हुआ-सा बोला-"यदि तुम अनाथ हो और तुम्हारा कोई सहारा नहीं है, तो मैं तुम्हारा नाथ बनने को प्रस्तुत हूँ।" इस पर उस युवक साधक ने, जिसको साधना के अनन्त सागर की कुछ बूंदों का रसास्वाद प्राप्त हुआ था, बड़े ओजस्वी और निर्भय शब्दों में कहा "राजन् । तुम तो स्वयं अनाथ हो, फिर मेरा नाथ बनने की बात कैसे कर सकते हो? जो स्वयं अनाथ हो, भला वह दूसरों के जीवन का नाथ किस प्रकार हो सकता है ?" . युवक साधक ने यह बहुत बड़ी बात कही थी। यह बात केवल जिह्वा से नहीं बल्कि अन्तर्हदय से कही गई थी। उसके शब्द अन्तर से उठकर आ रहे थे, तभी वे इतने वजनदार और इतने सच्चे थे। राजा श्रेणिक के ज्ञानचक्षु पर फिर भी पर्दा पड़ा रहा। उसने सोचा, शायद युवक को मेरे ऐश्वर्य और वैभव का पता नहीं है। अतः थोड़ा आत्म-परिचय दे देना चाहिए। राजा ने कहा- "मुझे जानते हो, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूँ। मगध का सम्राट हूँ। मेरा विशाल वैभव एवं अपार ऐश्वर्य मगध के कण-कण में बोल रहा है।" इसके उत्तर में युवक मुनि (अनाथी) ने कहा-"तुम मेरे भाव को न समझे, मेरी भाषा में नहीं समझे। शब्दों के चक्कर में उलझ कर उनकी आत्मा से बहुत दूर चले गए। तुम तो मगध के ही सम्राट् हो, किन्तु चक्रवर्ती और इन्द्र भी अनाथ हैं। वे भी विषय-वासना, भोग-विलास और ऐश्वर्य के दास हैं। तुम भी संसार के इन्हीं दासों में से एक हो। तुम अपनी इन्द्रिय, मन और इच्छाओं के इशारे पर क्रीतदास की तरह नाच रहे हो, तो फिर दूसरों के नाथ किस प्रकार बन सकते हो? जो स्वयं अपने विकारों के समक्ष दब जाता है, अपने आवेगों के समक्ष हार जाता है, वह किस प्रकार दूसरों पर शासन कर सकता है ? जब तुम अपने मन की गुलामी से भी छुटकारा नहीं पा सकते हो, तो संसार के इन तुच्छ वैभव और ऐश्वर्यों की बात करते हो ? जिनके भरोसे तुम दूसरों के नाथ बनना चाहते हो।" अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक का यह संवाद जीवन विजय का संवाद है। यह संदेश साधना की उस स्थिति पर पहुँचाता है, जहाँ भक्त को भगवान् के पीछे दौड़ने की जरूरत नहीं रहती, बल्कि जहाँ वह होता है, वहीं पर भगवान् उतर आते हैं। अनाथी मुनि की वाणी में वही भगवान् महावीर की दिव्य आत्मा बोल रही थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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