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________________ ८. चिंतन की मनोभूमि नहीं है, बल्कि इसलिए है कि जीवन के मर्त्य भाग में हम आसक्त न बनें और जीवन के किसी भी मर्त्य रूप को पकड़ कर हम न बैठ जाएँ। सब कुछ पाकर भी और सबके मध्य रहकर भी हम समझें कि यह हमारा अपना रूप नहीं है। यह सब आया है और चला जाएगा। जो कुछ आता है, वह जाने के लिए ही आता है, स्थिर रहने और टिकने के लिए नहीं आता है। भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति का यह अनित्यता और क्षणभंगुरता का उपदेश जीवन को जागृत करने के लिए है, जीवन को बन्धनों से विमुक्त करने के लिए है। जीवन का दूसरा रूप है...-अमर्त्य, अमृत और अमर। जीवन के अमर्त्य भाग को आलोक और प्रकाश कहा जाता है। अमृत का अर्थ है—कभी न मरने वाला। अमर का अर्थ है-जिस पर मृत्यु का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। वह क्या तत्त्व है ? इसके उत्तर में भारतीय दर्शन कहता है कि इस क्षणभंगुर, अनित्य और मर्त्य-शरीर में जो कुछ अमर्त्य है, जो कुछ अमृत है और जो कुछ अमर है, वही आत्म-तत्त्व है। यह आत्म-तत्त्व वह तत्त्व है, जिसका न कहीं आदि है, न कहीं मध्य और न कहीं अन्त है। यह आत्म-तत्त्व अविनाशी है, नित्य और शाश्वत है। न कभी इसका जन्म हुआ है और न कभी इसका मरण होगा। भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने अपनी समय शक्ति इसी अविनाशी तत्त्व की व्याख्या में लगादी थी। आत्मा क्या है ? वह ज्ञान है, वह दर्शन है, वह चरित्र है, वह आलोक है, वह प्रकाश है। अमृत वह होता है, जो अनन्त काल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। वैदिक-परम्परा के एक ऋषि ने कहा है-"अमृतस्य पुत्रः।" हम सब अमृत के पुत्र हैं। हम सब अमृत हैं, हम सब शाश्वत हैं और हम सब नित्य हैं। अमृतआत्मा का पुत्र अमृत ही हो सकता है, मृत नहीं। ईश्वर अमृत है और हम सब उसके भक्त-पुत्र हैं। जिन और सिद्ध शाश्वत हैं, इसलिए हम सब शाश्वत हैं और नित्य हैं। इस अमृत भाग को जिसने जान लिया और समझ लिया, उस आत्मा के लिए इस संसार में कहीं पर भी न कोई रोग है, न शोक है, न क्षोभ है और न मोह है। क्षोभ और मोह की उत्पत्ति जीवन के मर्त्य भाग में होती है, अमर्त्य में नहीं। यदि किसी का प्रियजन मर जाता है, तो वह विलाप करता है। किन्तु मैं पूछता हूँ कि वह विलाप किसका किया जाता है ? क्या आत्मा का, अथवा देह का? आत्मा के लिए विलाप करना तो एक बहुत बड़ा अज्ञान ही है, क्योंकि वह सदाकाल के लिए शाश्वत है, फिर उसके लिए विलाप क्यों? यदि शरीर के लिए विलाप करते हो, तो यह भी एक प्रकार की मूर्खता ही है, क्योंकि शरीर तो क्षणभंगुर ही है, अनित्य ही है, वह तो मिटने के लिए ही बना है। अनन्त अतीत में वह अनन्त बार बना है और अनन्त बार मिटा है। अनन्त अनागत में भी वह अनन्त बार बन सकता है और अनन्त बार मिट सकता है। तो, जिसका स्वभाव ही बनना और बिगड़ना है, फिर उसके लिए विलाप क्यों ? जीवन में जो अमर्त्य है, वह कभी नष्ट नहीं होता और जीवन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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