________________
जीव और जगत् : आधार एवं अस्तित्व ७ कहा है कि यह जीवन कुश के अग्रभाग पर स्थित जल - बिन्दु के समान है । मरण के पवन का झोंका लगते ही यह धराशायी हो जाता है। जिस शरीर पर मनुष्य अभिमान करता है, वह शरीर भी विविध प्रकार के रोगों से आक्रान्त है । पीड़ाओं और व्यथाओं का भंडार है। न जाने कब और किस समय और कहाँ पर इसमें से रोग फूट पड़े ? यह सब कुछ होने पर भी, भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति के उद्गाता उस दुःख का केवल रोना रोकर ही नहीं रह गए, क्षणभंगुरता और अनित्यता का उपदेश देकर ही नहीं रह गए, केवल मनुष्य के दुःख की बात कहकर, अनित्यता की बात दुहरा कर तथा क्षणभंगुरता की बात सुनाकर, निराशा के गहन गर्त में लाकर उसने जीवन को धकेल नहीं दिया, बल्कि निराश, हताश और पीड़ित जन-जीवन में आशा की सुखकर उपदेश - रश्मियाँ प्रदानकर प्रकाशित - प्रफुल्लित कर दिया । उसने कहा की मानव ! आगे बढ़ते जाओ। जीवन की क्षणभंगुरता और अनित्यता हमारे जीवन का आदर्श या लक्ष्य नहीं है । अनित्यता और क्षणभंगुरता का उपदेश केवल इसीलिए है कि हम जीवन में और धन-वैभव में आसक्त न बनें। जब जीवन को और उसके सुख-साधनों को अनित्य और क्षणभंगुर मान लिया जाएगा, तब उनमें आसक्ति नहीं जगेगी। आसक्ति का न होना ही भारतीय संस्कृति की साधना का मूल लक्ष्य है, उद्देश्य है।
चरम
भारतीय संस्कृति में जीवन के दो रूप माने गये हैं- ( १ ) मर्त्य-जीवन और (२) अमर्त्य-जीवन। इस जीवन में कुछ वह है, जो अनित्य है और जो क्षणभंगुर है और इस जीवन में वह भी है, जो अमर्त्य है, जो अमृत है और जो अमर है । जीवन का मर्त्य भाग क्षण - प्रतिक्षण नष्ट होता जा रहा है, समाप्त होता जा रहा है। जिस प्रकार अञ्जलि में भरा हुआ जल बूँद-बूँद करके रिसता चला जाता है, उसी प्रकार जीवन- -पुञ्ज में से जीवन के क्षण निरन्तर बिखरते रहते हैं । जिस प्रकार एक फूटे घड़े
बूँद-बूँद करके जल निकलता रहता है और कुछ काल में घड़ा खाली हो जाता है, प्राणी - जीवन की भी यही स्थिति है और यही दशा है। जीवन का मर्त्य-भाग अनित्य है, क्षणभंगुर है और नाशवान है। यह तन अनित्य है, यह मन अनित्य है, ये इन्द्रियाँ क्षणभंगुर हैं तथा धन और सम्पत्ति चंचल है। पुरजन और परिवारीजन आज हैं और कल नहीं। घर की लक्ष्मी उस बिजली की रेखा के समान है, जो चमक कर क्षण भर में विलुप्त हो जाती है। जरा सोचिए तो, इस अन्त-हीन और सीमा हीन संसार में किसकी विभूति नित्य रही है और किसका ऐश्वर्य स्थिर रहा है ? रावण का परिवार कितना विराट् था । दुर्योधन का परिवार कितना विस्तृत था, कितना व्यापक था । किन्तु उन सबको ध्वस्त होते और मिट्टी में मिलते क्या देर लगी ? जिस प्रकार जल का बुद-बुद जल में जन्म लेता है और जल में ही विलीन हो जाता है, उसी प्रकार धन, वैभव और ऐश्वर्य मिट्टी में से जन्म लेता है और अन्त में मिट्टी में ही विलीन हो जाता है। भारतीय संस्कृति का यह वैराग्य रोने और बिलखने के लिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org