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६ चिंतन की मनोभूमि
विश्व की क्षणभंगुरता भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति में दु:ख और क्लेश तथा अनित्यता और क्षणभंगुरता के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है और बहुत कुछ लिखा गया है। यही कारण है कि पाश्चात्य विद्वान् भारतीय दर्शन की उत्पत्ति अनित्यता और दुःख में से ही मानते हैं। क्या दु:ख और अनित्यता भारतीय दर्शन का मूल हो सकता है ? यह एक गम्भीर प्रश्न है, जिस पर भरपूर चिन्तन, मनन एवं विचार किया गया है। जीवन अनित्य है और जीवन दुःखमय है, इस चरम सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। सम्भवतः पाश्चात्य जगत् के विद्वान् भी इस सत्य को ओझल नहीं कर सकते। जीवन को अनित्य, दु:खमय, क्लेशमय, क्षणभंगुर मानकर भी भारतीय दर्शन आत्मा को एक अमर और शाश्वत तत्त्व मानता है। आत्मा को अमर और शाश्वत मानने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। परिवर्तन तो जगत् का एक शाश्वत नियम है। चेतन और अचेतन दोनों में ही परिवर्तन होता है। किन्तु इतनी बात अवश्य है, कि जड़गत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र हो जाती है, जबकि चेतनगत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र नहीं होने पाती। यदि चेतन में परिवर्तन न होता, तो आत्मा का दुःखी से सुखी होना और अशुद्ध से शुद्ध होना, यह कैसे सम्भव हो सकता था ! जीवन और जगत् में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है, दर्शनशास्त्र का यह एक चरम.सत्य है।
भारतीय दर्शन अनित्य में से और दुःख में से जन्म लेता है। भगवान् महावीर ने कहा है-''अणिच्चे जीव-लोगम्मि।" यह संसार अनित्य है और क्षणभंगुर है। क्या ठिकाना है इसका ? कौन यहाँ पर अजर-अमर बनकर आया है ? संसार में शाश्वत और नित्य कुछ भी नहीं है। यही बात बुद्ध ने भी कही है_"अणिच्चा संखारा।" यह संस्कार अनित्य है, क्षणभंगुर है। विशाल-बुद्धि व्यास ने भी कहा
"अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्म-संग्रहः॥" शरीर अनित्य है, धन और वैभव भी शाश्वत नहीं है, मृत्यु सदा सिर पर मँडराती रहती है न जाने कब मृत्यु आकर पकड़ ले, अतः जितना हो सके धर्म कर लेना चाहिए।
भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन का यह अटल विश्वास है कि मौत हर इन्सान के पीछे छाया की तरह चल रही है। जिस दिन जन्म लिया था, उसी दिन से इन्सान के पीछे मौत लग चुकी थी। न जाने वह कब झपट ले और कब हमारे जीवन को समाप्त कर दे। जीवन का यह खिला हुआ फूल न जाने कब संसार की डाली से झड़कर अलग हो जाए। जीवन नदी के उस प्रवाह के तुल्य है, जो निरन्तर बहता ही
रहता है। भगवान् महावीर ने इस मानव-जीवन को अनित्य और क्षणभंगुर बताते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only
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