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________________ जीव और जगत् : आधार एवं अस्तित्व ५ हैं, हेतुमूलक होती हैं। अपनी इस निर्धारण की क्रिया में, उपयोग की धारा में चेतन स्वतन्त्र है। चेतना से ही तो चेतन है। किन्तु जड़ सर्वथा अचेतन है, चेतनाशून्य है। अत: जड़ की अपनी क्रिया में स्वयं जड़ का अपना कोई हेतु नहीं है। जड़ की क्रिया होती है, सतत होती है, परन्तु वह कोई हेतु एवं लक्ष्य निर्धारित करके नहीं होती। चेतन : आनन्द की खोज में : चेतन अनादिकाल से आनन्द की खोज में रहा है। आनन्द ही उसका चरम लक्ष्य है, अन्तिम प्राप्तव्य है। चेतन को अपनी अनन्त जीवन-यात्रा में तन और मन के चरम आनन्द मिले हैं, भौतिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हुई हैं, और वह इनमें उलझता भी रहा है, अटकता या भटकता भी रहा है। इन्हें ही वह अपना अन्तिम प्राप्तव्य मानकर सन्तुष्ट होता रहा है। परन्तु यह आनन्द क्षणिक है। साथ ही दुःख सम्पृक्त भी है। विषमिश्रित मधुर मोदक जैसी स्थिति है इसकी। अतः जागृत चेतन कुछ और आगे झाँकने लगता है, शाश्वत मुक्त आनन्द की खोज में आगे चरण बढ़ा देता है। उक्त सच्चे और स्थायी आनन्द की खोज ने ही मोक्ष के अस्तित्व को सिद्ध किया है. परम्परागत दृष्ट जीवन से परे अनन्त असीम आनन्दमय जीवन का परिबोध दिया है। जड़ की स्वयं अपनी ऐसी कोई खोज नहीं है। जड़ की सक्रियता स्वयं उसके लिए सर्वतोभावेन निरुद्देश्य है, जबकि चेतन की क्रियाशीलता सोद्देश्य है। चेतन का परम उद्देश्य क्या है और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसी विश्लेषण की दिशा में मानव हजारों-हजार वर्षों से प्रयत्न करता रहा है। यह चिन्तन, यह मनन, यह प्रयत्न ही चेतन का अपना स्वविज्ञान है, जिसे शास्त्र की भाषा में आध्यात्म कहते हैं। आध्यात्म भूमिका ज्योंही स्थिर स्थिति में पहुँचती है, साधक के अन्तर में से सहज आनन्द का अक्षय अजस्त्र स्रोत फूट पड़ता है। चेतन के स्वरूपबोध का मूलाधार : स्थूल दृश्य पदार्थों को आसानी से समझा जा सकता है, उनकी स्थिति एवं शक्ति का आसानी से अनुमापन हो सकता है, किन्तु चेतना के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। चेतना अत्यन्त सूक्ष्म तथा गूढ़ है। दर्शन की भाषा में 'अणोरणीयान' है। साधारण मानवबुद्धि के पास तत्त्व-चिन्तन के जो इन्द्रिय एवं मन आदि ऐहिक उपकरण हैं, वे बहुत ही अल्प हैं, सीमित हैं। साथ ही सत्य की मूल स्थिति के वास्तविक आकलन में अधूरे हैं, अक्षम हैं। इसके माध्यम से चेतना का स्पष्ट परिबोध नहीं हो पाता है। केवल ऊपर की सतह पर तैरते रहने वाले भला सागर की गहराई को कैसे जान सकते हैं ? जो साधक अन्तर्मुख होते हैं-साधना के पथ पर एक निष्ठा से गतिमान रहते हैं-चेतना के चिन्तन तक ही नहीं, अपितु चेतना के ज्ञान-विज्ञान तक पहुँचते हैंनिजानुभूति की गहराई में उतरते हैं, वे ही चेतना के मूल स्वरूप का दिन के उजाले की भाँति स्पष्ट परिबोध पा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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