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४ चिंतन की मनोभूमि . परिवर्तन-चक्र देख रहे हैं, वह किसी ऐसे आधार की ओर संकेत देता है, जो परिवर्तित होकर भी परिवर्तित नहीं होता, अर्थात् अपनी मूल स्वरूपस्थिति से कभी भी च्युत नहीं होता और वह आधार क्या है ? दर्शन का उत्तर है—'सत्ता !' सत्ता अर्थात् अनादि अनन्त मूल तत्त्व। सत्ता का जन्म नहीं है। इसलिए उसका आदि नहीं है और सत्ता का विनाश नहीं है, न स्वरूप परिवर्तन है। इसलिए उसका अन्त भी नहीं है। सत्ता, जिसके जड़ और चेतन दो रूप हैं, अपने में एक वास्तविक शाश्वत तत्त्व है। यह न कोई आकस्मिक संयोग है और न कोई काल्पनिक सत्य। यह किसी सर्वोच्च सत्ता के रूप में माने गये ईश्वर, खुदा या गौड की देन भी नहीं है और न ऐसी किसी तथाकथित शक्तिविशेष से प्रशासित ही है। इस प्रकार उक्त अखण्ड अविनाशी सत्ता का न कोई कर्ता है और न हर्ता है। यह अपने आप में शतप्रतिशत पूर्ण है, स्वतन्त्र है। पूर्ण और स्वतन्त्र अर्थात् सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र। इसकी अपनी नियमबद्धता भी निश्चित है, अर्थात् स्वतन्त्र है, किसी अन्य परोक्ष-शक्ति के द्वारा परिचालित नहीं है। इसके अस्तित्व में कोई हेतु नहीं है। तर्क की भाषा में कहा जाए तो कह सकते हैं'सत्ता, सत्ता है, क्योंकि वह सत्ता है।"
इस विराट् विश्व की व्यवस्था का मूल सूत्र है'सत्ता !' इसके अनेकानेक महत्त्वपूर्ण अंश मानवबुद्धि के द्वारा परिज्ञात हो चुके हैं, फिर भी मानव का तर्कशील मस्तिष्क अभी तक विश्व के अनन्त रहस्यों का ठीक तरह उद्घाटन नहीं कर पाया है, न इसकी विराट् शक्ति का कोई एक निश्चित माप ही ले सका है। विश्व की सूक्ष्मतम सीमाओं की खोज में, उसकी अज्ञात अतल गहराइयों को जानने की दिशा में, मानव अनादिकाल से प्रयत्न करता आ रहा है। उसे एक सर्वथा अज्ञात रहस्य मानकर, अथवा अनावश्यक प्रपंच समझ कर वह कभी चुप होकर नहीं बैठा है। शोध की प्रक्रिया निरन्तर चालू रही है। इसी अज्ञात को ज्ञात करने की धुन में विज्ञान. के चरण अनवरत आगे और आगे बढ़ते रहे हैं, और वह अनेकानेक अद्भुत रहस्यों को रहस्यता की सीमा में से बाहर निकाल भी लाया है। फिर भी, अभी तक निर्णयात्मक रूप से यह नहीं कहा जा सका है कि "विश्व का यह अभिव्यक्त मानचित्र अन्तिम है। इसकी यह इयत्ता है, आगे और कुछ नहीं है।" सचमुच ही सर्वसाधारण जन-समाज के लिए विश्व एक पहेली है, जो कितनी ही बार बूझी जाकर भी अनबूझी ही रह जाती है। चेतन और अचेतन :
__साधारण मानवबुद्धि के लिए भले ही विश्व आज भी एक पहेली हो, किन्तु भारतीय तत्त्वदर्शन ने इस पहेली को ठीक़ तरह सुलझाया है। भारत का तत्त्वदर्शन कहता है कि विश्व की सत्ता के दो मौलिक रूप हैं-जड़ और चेतन। सत्ता का जो चेतन भाग है, वह संवेदनशील है, अनुभूतिस्वरूप है। किन्तु जड़ भाग उक्त शक्ति से सर्वथा शून्य है। यही कारण है कि चेतन की अधिकांश प्रवृत्तियाँ पूर्वनिर्धारित होती
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