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२६६ चिंतन की मनोभूमि लोभ-कषाय की मंदता तो जरूर हुई, किन्तु उसी के साथ-साथ अहंकार एवं दुर्वासनाओं ने उसे कितना आक्रांत कर दिया है। यह तो वैसी ही बात हुई कि घर से बिल्ली को तो.निकाला परन्तु ऊँट घुस आया। इसके विपरीत लोभ-कषाय की मंदता से जो उदारता आई, उसके फलस्वरूप किसी असहाय की सहायता करने की स्वस्थ भावना जगी, तो वह श्रेष्ठ है। साथ ही जिस पीडित व्यक्ति को धन दिया जाता है, उसकी आत्मा को भी शान्ति मिलती है। उसके मन में जो विद्रोह की भावनाएँ सुलग रही थीं, दुर्विकल्पों का जो दावानल जल रहा था, उसमें भी सुधार होता है, उनका भी शमन होता है।
एक सन्त से किसी ने पूछा कि वह भोजन क्यों करते हैं? क्या आप भूख के दास हैं? उत्तर में गुरु ने कहा— भूख कुतिया है और लग आने पर दूंकना शुरू कर देती है, परिणामस्वरूप इधर-उधर के अनेक दुर्विकल्प जमा हो जाते हैं और भजन, ध्यान आदि में बाधा आने लगती है। इसीलिए उसके आगे रोटी के कुछ टुकड़े डाल देना चाहिए, ताकि भजन स्वाध्याय में कोई विघ्न उपस्थित न हो। तीन अवस्थाएँ :
हाँ, तो दुर्विकल्पों की सृष्टि भूख से होती है। जो दाता अपने धन से दूसरों की क्षुधा तृप्ति करता है, वह अपनी लोभ कषाय की महत्ता के साथ दूसरों की आत्मा को शान्ति पहुँचाता है। जो धन अपने और दूसरों के काम नहीं आता, उसका उपयोग फिर तीसरी स्थिति में होता है। धन की तीन गतियाँ मानी गई हैं
"दान भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। . यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गति भवति॥" पहली गति है दान, जिनके पास जो है, वह दान करदें, जन-कल्याण में लगाएँ। यह आदर्श है। दूसरी गति है—भोग । जिसके पास धन है वह स्वयं उसका उपभोग करके आनन्द उठाए। किन्तु जिनके पास ये दोनों ही नहीं हैं, न तो अपने धन का दान करते हैं, और न ही उपभोग । उसके लिए फिर तीसरा मार्ग खुला हैविनाश का। जो अपने श्रम और अर्थ का दीन-दुःखी की सेवा के लिए प्रयोग नहीं करके संसार की बुराई में ही उपयोग करते हैं, उस धन और श्रम से उनको कोई लाभ नहीं होता, अपितु अकल्याण ही होता है, हानि ही होती है। एक कवि ने कहा है
"विद्या विवादाय धनं मदाय,
शक्तिः परेषां परिपीड़नाय। खलस्य साधोविपरीतमेतद,
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥"
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