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________________ २६० चिंतन की मनोभूमि बताया कि प्रत्येक विचार के हजारों-हजार पहलू हैं, अनन्त रूप हैं। जब तक उसके सर्वांग चिंतन का द्वार नहीं खुलेगा, उसके सम्पूर्ण रूप को समझने की दृष्टि नहीं जगेगी, तब तक हम हजारों-हजार बार जैन कुल में जन्म लेकर भी जैनत्व का मूल स्पर्श नहीं कर पाएँगे। चार भावनाएँ: जैन धर्म में चार भावनाओं की विशेष चर्चा आती है। आचार्य उमास्वाति ने, जिन्होंने जैन-दर्शन को सर्वप्रथम सूत्र रूप में प्रस्तुत किया, चार भावनाओं को व्यवस्थित रूप में गूंथा है। बीज रूप में आगमों में वे भावनाएँ यत्र-तत्र अंकुरित हुई थीं, किन्तु उमास्वाति ने उन्हें एक धागे में पिरोकर सर्वप्रथम पुष्पहार का सुन्दर रूप दिया। आचार्य अमितगति ने उन्हीं भावनाओं को एक श्लोक में इस प्रकार ग्रथित किया है "सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं। माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्री, सदा ममात्मा विदधातु देव !!" मैं समझता हूँ, सम्पूर्ण जैन साहित्य में यदि यह एक श्लोक ही आखिर तक हमारे पास बचा रहा तो सब कुछ बच रहेगा। सत्वेषु मैत्री—यह एक ऐसा आदर्श है, जिसका स्वर वेद, उपनिषद्, आगम और पिटक-सर्वत्र गूंज रहा है। मैत्री भावना मन की वृत्तियों का बहुत ही उदात्त रूप है, प्रत्येक प्राणी के साथ मित्रता की कल्पना ही नहीं, अपितु उसकी सच्ची अनुभूति करना, उसके प्रति ऐकात्मभाव तथा तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना, वास्तव में चैतन्य की एक विराट् अनुभूति है। मेरा तो विश्वास है कि यदि मैत्री भावना का पूर्ण विकास मानव में हो सके तो फिर यह विश्व ही उसके लिए स्वर्ग का नन्दन-कानन बन जाएगा। जिस प्रकार मित्र के घर में हम और मित्र हमारे घर में निर्भय और नि:संकोच स्नेह और सद्भावपूर्ण व्यवहार कर सकते हैं, उसी प्रकार फिर समस्त विश्व को भी हम परस्पर मित्र के घर के रूप में देखेंगे। कहीं भय, संकोच एवं आतंक की लहर नहीं होगी। कितमी सुखद और उदात्त भावना है यह। व्यक्ति-व्यक्ति में मैत्री हो, परिवार और समाज में मैत्री हो, तो फिर आज की जितनी समस्याएँ हैं, वे सब निर्मूल हो सकती हैं। चोरी, धोखा-धड़ी और लूट-खसोट से लेकर परमाणु शस्त्रों तक की विभीषिका इसी एक भावना से समाप्त हो सकती है। दूसरी भावना का स्वरूप है—'गुणिषु प्रमोदं'-गुणी के प्रति प्रमोद । किसी की अच्छी बात देखकर, उसकी विशेषता और गुण देखकर कभी-कभी हमारे मन में एक अज्ञात ललक, हर्षानुभूति होती है, हृदय में आनन्द की एक लहर-सी उठती है, बस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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