________________
स्वरूप की साधना | २५९ ऋण का अर्थ यही है कि मनुष्य जन्म लेते ही सामाजिक एवं पारिवारिक कर्तव्य व उत्तरदायित्त्व के साथ बँध जाता है। मनुष्य ऋण का स्पष्ट मतलब यह है, कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति एक स्वाभाविक उपकार व दायित्व होता है, एक कर्तव्य की जिम्मेदारी होती है, जिससे वह कभी भी किसी भी स्थिति में भाग नहीं सकता। यदि उस ऋण को बिना चुकाए भागता है, तो वह सामाजिक अपराध है, एक नैतिक चोरी है। इस विचार की प्रतिध्वनि जैन आचार्य उमास्वाति के शब्दों में भी गूंज रही है-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्। प्रत्येक प्राणी एक दूसरे प्राणी से उपकृत होता है, उसका आधार व आश्रय प्राप्त करता है। यह प्राकृतिक नियम है। जब हम किसी का उपकार लेते हैं, तो उसे चुकाने की भी जिम्मेदारी हमारे ऊपर आ पड़ती है। यह आदान-प्रतिदान की सहज वृत्ति ही मनुष्य की पारिवारिकता एवं सामाजिकता का मूल केन्द्र है। उसके समस्त कर्तव्यों, तथा धर्माचरणों का आधार है। यदि कोई इस पारिवारिक एवं सामाजिक भावना में मोह तथा राग की गंध बताकर भागने की बात कहता है, तो मैं उसे पलायनवादी मनोवृत्ति कहूँगा। यह सिर्फ उथला हुआ एकांगी चिंतन है। वह विकास प्राप्त व्यक्ति को पुनः गुहा-मानव की ओर खींचने का एक दुष्प्रयत्न मात्र है। इस राग और मोह से भागना ही अभीष्ट होता, तो भगवान् ऋषभदेव स्वयं पहल करके पारिवारिक व्यवस्था की नींव नहीं डालते। यद्यपि विवाह को आज तक किसी ने आध्यात्म-साधना का रूप नहीं दिया, किन्तु धर्म-साधना का एक सहायक कारण अवश्य माना है। गृहस्थाश्रम को साधु जीवन का आधार क्यों बताया है ? इसलिए कि उसमें मनुष्य की सामाजिक चेतना सहस्ररूपी होकर विकसित होती है। मनुष्य ने केवल वासना पूर्ति के लिए ही विवाह नहीं किया। वह तो आपकी चालू भाषा के अनुसार कहीं भी 'प्रासुक रूप' में कर सकता था, किन्तु इस वृत्ति को भगवान् ने असामाजिक बताया, महापाप का रूप दिया, और पति-पत्नी सम्बन्ध को एक पवित्र नैतिक आदर्श के रूप में माना।
इस सम्बन्ध में एक बात और बतादूँ कि जैन आचार दर्शन ने स्त्री के प्रति राग को अपवित्र राग माना है, जबकि स्व-स्त्री के राग को पवित्र राग के रूप में लिया है। यह बात इसलिए महत्त्व की है, चूँकि जैन-दर्शन को लोगों ने वैरागियों का दर्शन समझ लिया है। कुछ लोग इसे भगोड़ों का दर्शन कहते हैं, जिसका सिद्धान्त है कि घर बार, परिवार छोड़कर जंगल में भाग जाओ। यह एक भ्रान्ति है, महज गलत समझ है। जैन दर्शन, जिसका प्राण अहिंसा है, मनुष्य को सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय आदर्श की बात सिखाता है; करुणा, सेवा, समर्पण का संदेश देता है। नैतिक जिम्मेदारी और कर्तव्य को निभाने की बात कहता है। मैंने प्रारम्भ में ही आपको
१. तत्त्वार्थसूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org