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२५८ चिंतन की मनोभूमि किया, मनुष्य को परिवार-केन्द्रित रहना सिखाया, उसे सामाजिक कर्त्तव्य व दायित्व का बोध दिया।
भगवान् ऋषभदेव के पूर्व के युग में व्यक्ति तो थे, किन्तु परिवार नहीं था। यदि दो प्राणियों के सहवास को और उनसे उत्पन्न युगल संतान को ही परिवार कहना चाहें, तो भले कहें, पर निश्चय ही उसमें पारिवारिकता नहीं थी। परिवार का भाव नहीं था। वे युगल पति-पत्नी के रूप में नहीं, बल्कि नर-नारी के रूप में ही एक दूसरे के निकट आते थे। शारीरिक वासना के सिवाय उनमें और कोई आत्मीय सम्बन्ध नहीं था। वे सुख-दुःख के साथी नहीं थे, पारस्परिक उत्तरदायित्व की भावना उनमें नहीं थी या तो उनमें चेतना का ऊवीकरण नहीं हुआ था, अथवा वह चेतना बिखरी हई, टूटी हुई थी और अपने आप में सिमटी हुई भी थी। भगवान् ऋषभदेव ने ही उस व्यक्ति केन्द्रित चेतना को समष्टि के केन्द्र की ओर मोड़ा, कर्तव्य
और उत्तरदायित्व का संकल्प जगाया, एक-दूसरे की सुख-दुःखात्मक अनुभूति का स्पर्श उन्हें करवाया, कहना चाहिए, निरपेक्ष मानस को संवेदनशील बनाया, व्यक्तिगत हृदय को सामाजिकता के सूत्र में जोड़ा। इसलिए जैन संस्कृति उन्हें—'प्रथमभूमिपतिः प्रथमो यतिः' कह कर पुकारती है, प्रथम राष्ट्र निर्माता और धर्म का आदिकर्ता कहकर अभिनन्दन करती है।
भगवान् ऋषभदेव ने जिस पारिवारिक चेतना का विकास किया, वह अहिंसा और मैत्री का विकास था। यह बात मैं मानता हूँ कि पारिवारिक चेतना में राग और मोह की वृत्ति जग जाती है, हमारा स्नेह और प्रेम दैहिक आधार पर खड़ा हो जाता है, किन्तु फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि उसके तलछट में तो अहिंसा की सूक्ष्म भावना कहीं अवश्य मिलेगी, करुणा और मैत्री की कोई क्षीण-धारा बहती हुई अवश्य मिलेगी। पलायनवादी मनोवृत्तिः
पारिवारिक चेतना में मुझे अहिंसा और करुणा की झलक दिखाई देती है समर्पण और सेवा का आदर्श निखरता हुआ-सा लगता है। प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था में चार प्रकार के ऋण की चर्चा मिलती है। कहा जाता है कि प्रत्येक मनुष्य पैदा होते ही ये चारों तरह के ऋण अपने साथ लेकर आता है। देव ऋण-(देवताओं का ऋण), ऋषिऋण (ऋषियों का ऋण), पितृऋण (पूर्वजों का ऋण) और मनुष्य ऋण (परिवार, समाज व पड़ोसी मनुष्यों का ऋण)
कुछ उत्तरकालीन ग्रन्थों में तीन ऋण प्रसिद्ध हैं—देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। किन्तु प्रारम्भ में चार रिण माने जाते थे जैसा उल्लेख प्राप्त हैऋणं ह वै जायते योऽस्ति। स जायमानो एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः -शतपथ ब्राह्मण, १,७, २, १
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