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स्वरूप की साधना २५७ बंधन भी है । परन्तु मेरी दृष्टि कुछ और है। राग भाषा में नहीं, भावना में होता है, बंधन दृष्टि में होता है । यदि इन्हीं शब्दों के साथ हमारी चेतना का विराट स्वरूप जुड़ा हुआ हो, हमारी समष्टिगत चेतना का स्पंदन इनमें हो, तो ये ही उदात्त प्रेम और वात्सल्य के परिचायक हो सकते हैं। इन्हीं शब्दों के नाद में कर्त्तव्य की उदात्त पुकार और प्रेरणा सुनी जा सकती है। नंदी सूत्र में जहाँ तीर्थंकरों की स्तुति की गई है, वहाँ भाव विभोर शब्दों में कहा गया है- 'जयइ जगपियामहो भयव' – जगत् के पितामह भगवान् की जय हो। भगवान् को जगत का पितामह अर्थात् दादा कहा है। इस शब्द के साथ वात्सल्य की कितनी उज्ज्वल धारा है। शिष्य के लिए 'वत्स' (पुत्र) शब्द का प्रयोग आगमों में अनेक स्थान पर होता रहा है, क्या इस शब्द में कहीं राग की गन्ध है ? नहीं, इन शब्दों के साथ पारिवारिक चेतना का उदात्तीकरण हुआ है, पारिवारिक भाव विराट् अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
मनुष्य जाति की विरासत :
मैं मानता हूँ, मनुष्य जाति भाग्यशाली है, जिसमें पारिवारिक चेतना का विकास है। अन्य कौन-सी जाति एवं योनि है, जहाँ पारिवारिक भाव है ? एक-दूसरे के प्रति समर्पित होने का संकल्प है ? नरक में असंख्य- असंख्य नारक भरे पड़े हैं। एक पीड़ा से रोता है, तो दूसरा दूर खड़ा देख रहा होता है । कोई किसी को सांत्वना देने वाला नहीं, किसी के आँसू पोंछने वाला नहीं। एक प्रकार की आपाधापी, लूटखसोट, यही तो नरक की कहानी है। जिस जीवन में इस प्रकार की आपाधापी होती है, उसे यहाँ भी तो हम नरक ही कहते हैं। किसी के दुःख-सुख से किसी को लगाव नहीं, क्या वहाँ किसी पारिवारिक भाव का स्पन्दन सम्भव है ? पशु जाति में तो परिवार की कोई कल्पना ही नहीं, थोड़ा-बहुत है तो कुछ काल तक का मातृत्व भाव जरूर मिल जाता है, पर उसमें भी उदात्त चेतना की स्फुरणा और विकास नहीं है। देवताओं में जिसे हम सुख की योनि मानते हैं, वहाँ भी कहाँ है पारिवारिकता ? वहाँ मातृत्व तो कुछ है ही नहीं, पति-पत्नी जरूर होते हैं, पत्नी के लिए संघर्ष भी होते हैं, परन्तु पति-पत्नी का जो उदार भाव है, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व का जो उच्चतम आदर्श है, वह तो नहीं है देवयोनि में ? शारीरिक बुभुक्षा और मोह की एक तड़प के सिवा और है क्या देवताओं में ? देवियों को चुराना, उनका उपभोग करना और फिर कहीं छोड़ देना, कुछ देव तो इसी मनोरोग के शिकार हैं। इसलिए मैं मनुष्य जाति को ही एक श्रेष्ठ और भाग्यशाली जाति मानता हूँ, जिसमें विराट् पारिवारिक चेतना का विकास हुआ है, स्नेह एवं सद्भाव के अमृत स्रोत बहे हैं, उदात्त और सात्विक सम्बन्धों के सुदृढ़ आधार बने हैं, तथा समर्पण का पवित्र संकल्प जगा है । पारिवारिक भावना का विकास :
भगवान् ऋषभदेव को हम इस युग का आदिपुरुष मानते हैं। किसलिए ? इसीलिए तो कि उन्होंने व्यष्टि केन्द्रित मानव जाति को समष्टिगत चेतना से पूर्ण
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