________________
स्वरूप की साधना २६१
यह आनन्द एवं हर्ष की लहर ही प्रमोद - भावना है। किन्तु इस प्रकार की अनुभूति के अवसर जीवन में बहुत ही कम आते होंगे- ऐसा मुझे लगता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह दूसरों की बुराई में बहुत रस लेता है। ईर्ष्या और डाह का पुतला होता है। दूसरे किसी का उत्कर्ष देखता है, तो जल उठता है। पड़ोसी को सुखी देखता है, तो स्वयं बेचैन हो जाता है। किसी ने बढ़कर कुछ सत्कर्म कर दिया तो बस लोग व्यंग्य और चुटीले शब्दों से बींध डालने की कोशिश करते हैं। जीवन की यह बड़ी विषम स्थिति है। मनुष्य का मन, देखो तब ईर्ष्या, डाह, प्रतिस्पर्धा में जलता रहता है।
जब
ईर्ष्या की आग कभी-कभी इतनी विकराल हो जाती है कि मनुष्य अपने भाई और • पुत्र के भी उत्कर्ष को फूटी आँखों नहीं देख सकता। एक ऐसे पिता को मैंने देखा है, जो अपने पुत्र की उन्नति से जला - भुना रहता था । पुत्र बड़ा प्रतिभाशाली और तेजस्वी था, पिता के सब व्यापार को संभाल ही नहीं रहा था बल्कि उसको काफी बढ़ा भी रहा था। मिलनसार इतना कि जो भी लोग आते, सब उसे ही पूछते । सेठजी बैठे होते, तब भी पूछते – वह कहाँ है ? बस सेठ जल उठता-' -" जो भी आते हैं पूछते वह कहाँ है । कल का जन्मा छोकरा, आज बन गया सेठ । मुझे कोई पूछता ही नहीं। सेठ तो मैं हूँ, उसका बाप हूँ ।"
मैं समझता हूँ, यह पीड़ा, यह मनोव्यथा एक पिता की ही नहीं, आज अनेक पिता और पुत्रों की यही व्यथा है, भाई-भाई की भी पीड़ा है। इसी पीड़ा से पतिपत्नी भी कसकते रहते हैं और अड़ोसी - पड़ोसी भी इसी दर्द के मरीज होते हैं। ईर्ष्या और जलन आज राष्ट्रीय बीमारी ही क्या, अन्तर्राष्ट्रीय बीमारी बन गई है और इसीलिए कोई सुखी एवं शांत नहीं है।
इस बीमारी के उपचार का यही एक मार्ग है कि हम प्रमोद भावना का अभ्यास करें, जहाँ कहीं भी गुण है, विशेषता है, उसे साफ चश्मे से देखें । व्यक्ति, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और राष्ट्र का चश्मा उतार कर उसे केवल गुण-दृष्टि से देखें, उसका सही मूल्यांकन करें और गुण का आदर करें। यह निश्चित समझिए कि आप यदि स्वयं आदर-सम्मान पाना चाहते हैं, तो दूसरों को भी आदर और सम्मान दीजिए। अपने गुणों की प्रशंसा चाहते हैं, तो औरों के गुणों की भी प्रशंसा कीजिए ।
मैत्री एवं प्रमोद भावना का विकास, मन में प्रसन्नता, निर्भयता एवं आनंद का संचार करता है ।
तीसरी और चौथी भावना है-करुणा एवं माध्यस्थ्य !
करुणा मन की कोमलता वृत्ति है, दुःखी और पीड़ित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा, मानवीय संवेदना जग उठती है और हम उसके प्रति सहानुभूति का हाथ बढ़ाते हैं । करुणा मनुष्य की सामाजिकता का मूल आधार है। अहिंसा, सेवा,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
:
www.jainelibrary.org