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________________ २५४ चिंतन की मनोभूमि जिस प्रकार खेती में कभी एक ही चीज नहीं बोई जाती, सैकड़ों-हजारों प्रकार के बीज बोए जाते हैं, सर्वांग खेती की जाती है, उसी प्रकार जीवन की साधना कभी एकांगी नहीं होती, वह सर्वांगीण होती है। हमारी आत्मा का स्वरूप अनन्त गुणात्मक है। आचार्य माघ नन्दी ने इस सम्बन्ध में कहा है "अनन्तगुणस्वरूपोऽहम्:". यह आत्मा अनन्त गुणों का अक्षय कोष है, यह बात कहने पर भी जब दार्शनिक आचार्य को लगा कि अभी बात पूरी कर नहीं सका हूँ, आत्मस्वरूप का परिचय पूर्णरूपेण नहीं दे सका हूँ, तो उन्होंने उपर्युक्त सूत्र को परिवर्धन के साथ पुनः दुहराया "अनन्तानन्तगुणस्वरूपोऽहम्।" अनन्त का, अनन्त-अनन्त गुणों का, समवाय है यह आत्मा। अनन्त को अनन्त से गुणन करने पर अनन्तानन्त होता है। सर्वांग सुन्दरता : _ अनन्त को अनन्त बार दुहराने का समय न आपके पास है और न मेरे पास। इस जीवन में क्या, अनन्त जन्मों तक प्रयत्न करने पर भी हम उसके अनन्त स्वरूप को दुहरा नहीं सकते। अभिप्राय यह है कि जीवन जो अनन्तानन्त गुणों का समवाय है, उसकी सर्वांग सुन्दरता प्रस्फुटित होनी चाहिए, उसके विभिन्न रूपों का विकास होना चाहिए। अगर जीवन का विकास एकांगी रहा, जीवन में किसी एक ही गुण का विकास कर लिया और अन्य गुणों की उपेक्षा कर दी गई, तो वह विकास, वस्तुत: विकास नहीं होगा, • उससे तो जीवन बेडौल एवं अनगढ़ हो जाएगा। __ कल्पना कीजिए, कोई ऐसा व्यक्ति आपके सामने आये, जिसकी आँखें बहुत सुन्दर हैं, तेजस्वी है, पर नाक बड़ी बेडौल है, तो क्या वह आँखों की सुन्दरता आपके मन को अच्छी लगेगी ? किसी आदमी के हाथ सुन्दर हैं, किन्तु पैर बेडौल हैं, किसी का मुख सुन्दर है, किन्तु हाथ-पैर कुरूप और बेडौल हैं, तो इस प्रकार की सुन्दरता, कोई सुन्दरता नहीं होती, सुन्दरता वही मन को भाती है. आँखों को सुहाती है, जो सर्वांग सुन्दर होती है। जब समस्त अवयवों का, अंगोपांगों का उचित रूप से निर्माण और विकास होता है, तभी वह सुन्दरता,सुन्दरता कहलाती है। जीवन की सुन्दरता : जिस प्रकार तन की सर्वांग सुन्दरता अपेक्षित होती है, उसी प्रकार मन और जीवन की भी सर्वांग सुन्दरता अपेक्षित है। जीवन का रूप भी सर्वांग सुन्दर होना चाहिए। वह जीवन ही क्या, जिसका एक कोण सुन्दर हो और अन्य हजारों लाखों कोण असुन्दर तथा अभद्र हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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