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स्वरूप की साधना | २५३ है। मैं कहना यह चाहता था, कि इस साहित्य की प्रेरणा क्या है ? कहाँ से उठती है इसके निर्माण की ध्वनि ? गौतम की जिज्ञासा से, संशय से। जो संशय ज्ञानाभिमुख होता है, वह बुरा नहीं होता। पश्चिम के दार्शनिक तो दर्शन की उत्पत्ति और विकास संशय से ही मानते हैं। क्या ? कैसे ? किसलिए? यह दर्शन के विकास के मूल-सूत्र हैं, यही सूत्र विज्ञान का भी जनक है। भारतीय विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया 'नहि संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' संशय किए बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन ही नहीं कर सकता। पुराने आचार्य ग्रन्थों का निर्माण करते समय सबसे प्रथम उसकी पृष्ठभूमि, जिज्ञासा पर खड़ी करते हैं-'अथातो धर्म-जिज्ञासा,'-अब धर्म की जिज्ञासा, जानने की इच्छा प्रारम्भ की जाती है। इस प्रकार दर्शन और धर्म के साहित्य का निर्माण हुआ है, जिज्ञासा से। सिर्फ साहित्य के विकास की बात मैं नहीं करता, मानवजाति का विकास भी जिज्ञासा के आधार पर ही हआ है। जिज्ञासा ने मखे को विद्वान् बनाया है, अज्ञान को ज्ञान दिया है। हर एक आत्मा में जिज्ञासा पैदा होती है, वह उसका समाधान चाहती है और विकास करती जाती है। बात यह हुई कि सुख की इच्छा और स्वतन्त्रता की भावना की तरह, जिज्ञासा भी आत्मा की सहज भावना है, स्वभाव है, उससे किसी को रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक प्राणी ईश्वर है :
पाँचवीं भावना—प्रभुता की है। प्रत्येक प्राणी चाहता है कि संसार में वह स्वामी बनकर रहे, ईश्वर बनकर रहे। चूँकि आत्मा को जब परमात्मा माना गया है, ईश्वर का रूप माना गया है, तो इसका मतलब यही हुआ कि वह अपने ईश्वरत्व को विकसित करना चाहता है। ईश्वर का अर्थ ही है स्वामी, समर्थ और प्रभु। इसलिए प्रभुता चाहना, कोई गलत बात नहीं है, यह तो आत्मा का स्वभाव है।
__ घर में एक बच्चा है, आजादी से रहता है, बादशाह बनकर रहता है, वह भी जब देखता है कि घर में उसका अपमान किया जा रहा है, उसकी बात सुनी नहीं जाती है तो वह तिलमिला उठता है, उसका 'मूड' बिगड़ जाता है। बहू भी घर में जब आती है और देखती है कि इस घर में उसे सम्मान नहीं मिल रहा है, सास, ससुर आदि उसे दासी की तरह समझ रहे हैं, तो विशाल ऐश्वर्य होते हुए भी. वह घर उसके लिए 'नरक' के समान बन जाता है। वह यही कहेगी 'धन को चा, जहाँ सम्मान नहीं, वहाँ जीना कैसा? सुख कैसा?
सहस्त्ररूपी साधना साधना की पवित्र स्रोतस्विनी सहस्रधारा के रूप में बहती रही है। जीवन को यदि हम एक खेत के रूप में देखें, तो उस खेत में हजारों-हजार पेड़-पौधे हैं, उन्हें सरसब्ज रखने के लिए, साधना की हजारों-हजार धाराएं बहती रहनी चाहिए, उनके शीतल मधुर जल का स्पर्श जीवन के खेत में सतत होता रहना चाहिए।
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