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२५२ | चिंतन की मनोभूमि
है । ' जीवो उवओग लक्खणो' भगवान् महावीर की वाणी है कि जीव का स्वरूप ज्ञानमय है। इसके दो कदम और आगे बढ़कर, यहाँ तक कह दिया गया है कि जो ज्ञान है, वही आत्मा है, जो आत्मा है, वही ज्ञान है' जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया।' वैदिक परम्परा में भी यही स्वर मुखरित हुआ— 'प्रज्ञानं ब्रह्म । ' मतलब यह है, कि ज्ञान कोई अलग वस्तु नहीं है, जो चेतन है, वही ज्ञान है ।
छोटे-छोटे बच्चे जब कोई चीज देखते हैं, तो पूछते रहते हैं कि यह क्या है ? वह क्या है ? हर बात पर उनके प्रश्नों की झड़ी लगी रहती है। आप भले उत्तर देते-देते तंग आ जाएँ, पर वह है कि पूछता - पूछता नहीं थकता, वह सृष्टि का समस्त ज्ञान अपने अन्दर में भर लेना चाहता है, सब कुछ जान लेना चाहता है । वह ऐसा क्यों करता है ? जानने की इतनी उत्कण्ठा उसमें क्या जाग पड़ी है ? इसका मूल कारण यही है कि जानना उसका स्वभाव है । जिज्ञासा प्राणिमात्र का धर्म है। भूख लगना जैसे शरीर का स्वभाव है, वैसे ही ज्ञान की भूख जगना, आत्मा का स्वभाव है।
किसी भी अनजानी नई चीज को देख - सुनकर हमारे मस्तिष्क में 'क्या ? क्यों ? किसलिए ?' के प्रश्न खड़े जो जाते हैं। हम उस नई वस्तु को, अनजानी चीज को जानना चाहते हैं । जब तक नहीं जान पाते, मन को शान्ति नहीं हो पाती, समाधान नहीं हो पाता। तात्पर्य यह है कि जब तक जिज्ञासा जीवित है, तब तक ही हमारा जीवन है। जब अन्न से अरुचि हुई, भूख समाप्त हुई, तो समझ लीजिए अब टिकट बुक हो गया है, अगली यात्रा शुरू होने को है । जब जानने की वृत्ति समाप्त हुई, तो ज्ञान का दरवाजा बन्द हो जाता है, जीवन की प्रगति और उन्नति रुक जाती है, आत्मा अज्ञान में ठोकरें खाने लग जाती है, विकास अवरुद्ध हो जाता है । जानने की यह वृत्ति बच्चे में भी रहती है, युवक में भी जगती है और बूढ़ों में भी होती है। हर एक हृदय में यह वृत्ति जगती रहती है । वह जो देखता है, सुनता है, उसका विश्लेषण करना चाहता है। उसका ओर-छोर जानना चाहता है, बिना जाने उसकी तृप्ति नहीं होती । जिज्ञासा : ज्ञान का भंडार :
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आगम में हम पढ़ते हैं कि गणधर गौतम ने अमुक वस्तु देखी, अमुक बात सुनी, तो मन में संशय पैदा हुआ, कुतूहल पैदा हुआ 'जाय संसये, जाय कोउहले' और इस संशय का समाधान करने तुरन्त प्रभु के चरणों में पहुँच जाते और पहुँचते ही यह प्रश्न कर देते कि 'कहमेयं भन्ते । - "प्रभो । यह बात कैसे है ? इसमें सत्य क्या है ?" गौतम गणधर के प्रश्नों का विशाल क्रम ही जैन साहित्य और दर्शन के विकास की सुदीर्घ परम्परा है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ, 'महान् आगम वाङ्गमय में से यदि गौतम के प्रश्नोत्तर एवं संवाद निकाल दिए जाएँ, तो फिर आगम साहित्य में कुछ रह नहीं जाएगा । योरोप के अँग्रेजी साहित्य में जो स्थान शेक्सपियर के साहित्य का है, संस्कृत साहित्य में जो स्थान कालिदास के साहित्य का है, जैन आगमों में वही स्थान गौतम के संवादों का है। गौतम के प्रश्न और संवाद जैन आगमों की आत्मा
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