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________________ स्वरूप की साधना | २५१ वह भी छटने के लिए छटपटाने लग जाता है। दो क्षण में ही वह उछलकूद मचाने लग जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र रहना आत्मा का, चेतन का, स्वभाव है। स्वभाव से विपरीत वह कभी नहीं जा सकती।। हम साधना के द्वारा मुक्ति की बात क्यों करते हैं ? मोक्ष की अपेक्षा बाहर में स्वर्ग की मोहकता अधिक है, भोगविलास है, वहाँ ऐश्वर्य का भण्डार है, फिर स्वर्ग के लिए नहीं, किन्तु मुक्ति के लिए ही हम साधना क्यों करते हैं ? मोक्ष में तो अप्सराएँ भी नहीं हैं, नृत्य-गायन भी नहीं है ? बात यह है कि यह भौतिक सुख भी तो आत्मा का बन्धन ही है। देह भी बन्धन है, काम, क्रोध, ममता आदि भी बन्धन हैं, विकार और वासना भी बन्धन है और आत्मा इन सब बन्धनों से मुक्त होना चाहती है ? भौतिक प्रलोभनों और लालसाओं के बीच हमारी आजादी दब गई है। सुखसुविधाओं से जीवन पंगु हो गया है, इन सबसे मुक्त होना ही हमारी आजादी की लड़ाई का ध्येय है। इसीलिए हमारी साधना मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही है। मुक्ति हमारा स्वभाव है, स्वरूप है। वहाँ किसी का बन्धन नहीं, किसी का आदेश नहीं। आचार्य जिनदास ने कहा है—'न अन्नो आणायव्वो' तू दूसरों पर अनुशासन मत कर। आदेश मत चला। अपना काम स्वयं कर। जैसा तुझे दूसरों का आदेश और शासन अप्रिय लगता है, वैसे ही दूसरों को भी समझ। कोई किसी के हुकुम में, गुलामी में रहना पसन्द नहीं करता। __कुछ लोग अमीरी के मधुर-स्वप्नों में रहते हैं। पानी पिलाने के लिए नौकर, खाना खिलाने के लिए भी नौकर, कपड़े पहनाने के लिए भी नौकर, मैंने यहाँ तक देखा है कि यदि जूते पहनने हैं, तब भी नौकर के बिना नहीं पहने जाते। यह इज्जत है या गुलामी ? यदि यह इज्जत है भी तो किस काम की है वह इज्जत, जहाँ मनुष्य दूसरों के अधीन होकर रहता है। आज का मानव भी स्वतन्त्रता की बात करता है, पर वह दिन प्रतिदिन यंत्रों का गुलाम होता जा रहा है। यंत्रों के बिना उसका जीवन पंगु हो गया है। विज्ञान का विकास अवश्य हुआ है, जीवन के लिए उसका उपयोग भी है, पर जीवन को एकदम उसके अधीन तो नहीं हो जाना चाहिए न ? इधर हम स्वतन्त्रता की बात करते हैं और उधर पराश्रित होते चले जा रहे हैं। अन्न आदि. आवश्यक वस्तुओं के मामले में भी देश आज परमुखापेक्षी हो रहा है। यद्यपि हमारा चिन्तन इन सब परवशताओं को तोड़ने के लिए प्रयत्न कर रहा है। क्योंकि उसे स्वतन्त्र रहना है, अपने स्वरूप में जाना है, आखिर। राजनीतिक आजादी, सामाजिक आजादी और आर्थिक आजादी तथा इन सबके ऊपर अंत में आध्यात्मिक आजादीहमारे सामने यह आदर्श है। हमें इसी ओर बढ़ना है, अपने स्वरूप की ओर जाना है। जिज्ञासा : चेतन का धर्म : चौथी वत्ति है-जिज्ञासा की। ज्ञान पाने की इच्छा ही जिज्ञासा है, सुख और स्वतन्त्रता की भावना की तरह यह भी नैसर्गिक भावना है। चैतन्य का लक्षण ही ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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