SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 २५० चिंतन की मनोभूमि आजादी और गुलामी के साथ यह भी बात समझ लेना आवश्यक है कि हमारी भावनाएँ अर्थात् मनुष्य की भावनाएँ गुलामी और मुहब्बत के दायरे में, बिलकुल अलग-अलग हैं। जब तक पुत्र के दिल में पिता के प्रति प्रेम और भक्ति है, जब तक भाई का भाई के प्रति प्रेम है, तब तक वह उसकी सेवा और मिन्नतें करने को तैयार रहता है । कभी उसके मन में इस तरह की कल्पना नहीं उठती कि मैं किसी गुलामी कर रहा हूँ । किन्तु जब प्रेम का सम्बन्ध टूट जाता है, तो वह एक बात भी उसकी नहीं मानना चाहता। हर बात को वह गुलामी की दृष्टि से देखने लग जाता है। पति-पत्नी में जब तक प्रेम है, दोनों एक-दूसरे की हजार-हजार सेवाएँ करने को तैयार रहते हैं, पर पत्नी के मन में भी जब यह आ गया कि पति मुझे गुलाम समझता है, अपनी दासी समझता है, तो वह भी अकड़ जाती है। उसके लिए अपना बलिदान नहीं कर सकती । गुलामी की अनुभूति के साथ ही उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है और स्वतन्त्रता को कोई भी प्राणी किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहता । हमारे यहाँ मानव सभ्यता के आदियुग का प्रसंग आता है। भरत और बाहुबलि सगे भाई थे, बड़ा प्रेम था दोनों में। बाहुबलि हर क्षण भरत की सेवा में रहते थे, उनका सम्मान करते थे और उन्हें प्राणों से भी अधिक चाहते थे। पर, जब भरत चक्रवर्ती बनते हैं और बाहुबलि को कहलाते हैं कि आओ, हमारी सेवा करो, वफादारी की शपथ लो, तो बाहुबलि कहते हैं, हमारा तो प्रेम का सम्बन्ध चला ही आया है, भाई की सेवा में सदा तत्पर रहूँगा ही, किन्तु यह नई बात क्या आ गई ? भाई के नाते हम हजार सेवा कर सकते हैं उनकी । हाथ जोड़े उनकी सेवा में दिनरात खड़े रह सकते हैं, पर यदि वह सेवक के नाते मुझे बुलाना चाहते हैं, तो, भाई तो क्या मैं अपने बाप की भी सेवा करना स्वीकार नहीं करता। बस, युद्ध शुरू हो गया और जो कुछ हुआ, वह आपको मालूम ही है। उसने अपनी स्वतन्त्रता नहीं बेची। अन्त में विजय प्राप्त करके भी जब देखा कि वास्तव में भरत को चक्रवर्ती होना है, तो जीते हुए साम्राज्य को भी लात मारकर चल पड़े। स्वतन्त्रता : आत्मा का स्वभाव है : अभिप्राय यह है कि हर आत्मा में स्वतन्त्र रहने को वृत्ति बड़ी प्रबल है। प्रेम के वश वह किसी का हो सकता है, पर गुलाम बन कर किसी के बन्धन में नहीं रहना चाहता। क्यों नहीं रहना चाहता ? इसका भी यही एक उत्तर है कि स्वतन्त्रता आत्मा का स्वभाव है, स्वरूप है और उसका अधिकार है । स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, यह नारा भारतीय संस्कृति का नारा है, धर्म और संस्कृति का स्वर है । एक जड़ पदार्थ को आप किसी डिबिया में बन्द करके रख दीजिए वह हजार वर्ष तक भी रखा रहेगा, तो भी कोई हलचल नहीं मचाएगा, आजादी के लिए संघर्ष नहीं करेगा, किन्तु यदि किसी क्षुद्रकाय चूहे को भी पिंजड़े में डाल दिया जाए, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy