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स्वरूप की साधना २४९ नहीं। साधना तो वह है, जिसके आदि में भी सुख और प्रसन्नता, स्वागत के लिए खड़ी रहे, आनन्द की लहरें उछलती मिलें और मध्य में भी सुख तथा अन्त में भी सुख । वास्तव में साधक के सामने दैहिक कष्ट, कष्ट नहीं होते, उन्हें मिटाने के लिए भी उसकी साधना नहीं होती। साधना तो होती है, आत्मा की प्रसन्नता और आनन्द के लिए।
एक बार की बात है। वनवास के समय युधिष्ठिर ध्यान-मग्न बैठे थे। ध्यान से उठे तो द्रौपदी ने कहा "धर्मराज! आप भगवान् का इतना भजन करते हैं, इतनी देर ध्यान में बैठे रहते हैं, फिर उनसे कहते क्यों नहीं कि वे इन कष्टों को दूर कर दें! कितने वर्ष से वन-वन भटक रहे हैं, कहीं टेढ़े-मेढ़े पत्थरों पर रात गुजरती है, तो कहीं कंकरों में। कभी प्यास के मारे गला सूख जाता है, तो कभी भूख से पेट में बल पड़ने लगते हैं। भगवान् से कहते क्यों नहीं कि इन संकटों का वे अन्त कर डालें।"
धर्मराज ने कहा-"पांचाली। मैं भगवान् का भजन इसलिए नहीं करता कि वह हमारे कष्टों में हाथ बटाएँ। यह तो सौदेबाजी हुई। मैं तो सिर्फ आनन्द के लिए भजन करता हूँ। उसके चिन्तन से ही मेरे मन को प्रसन्नता मिलती है। जो आनन्द मुझे चाहिए, वह तो बिना माँगे ही मिल जाता है, इसके अतिरिक्त और कुछ माँगने के लिए मैं भजन नहीं करता।"
साधना का यह उच्च आदर्श है कि वह जिस स्वरूप की साधना करता है, वह स्वरूप आनन्दमय है, उसके जीवन में सुख भर जाता है, चारों ओर प्रसन्नता छा जाती है। सुख की इस साधना से अहिंसा का यह स्वर दृढ़ होता है, कि तुम स्वयं भी सुखी रहो और दूसरों को भी सुखी रहने दो। 'स्व' और 'पर' के सुख की साधना ही अपने स्वरूप की सच्ची आराधना है।
जो स्वयं ही मुहर्रमी सूरत बनाए रहता है, वह दूसरों को क्या खुश रखेगा ? स्वयं के जीवन को ही जो भार के रूप में ढो रहा है, वह संसार को जीने का क्या सम्बल देगा ? इसलिए साधना अन्तर्मुखी होनी चाहिए। स्वयं जीएँ, और दूसरों को जीने दें, स्वयं खुश रहें और दूसरों को खुश रहने दें। किसी की खुशी और प्रसन्नता को लूटने की कोशिश न करें। स्वतन्त्रता की भावना :
आत्मा की तीसरी भावना, स्वतन्त्रता की भावना है। यह बात तो हम युग-युग से सुनते आए हैं कि कोई भी आत्मा बन्धन नहीं चाहती। विश्व में बन्धन और मुक्ति की लडाई सिर्फ साधकों के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर एक क्षेत्र में चल रही है। कोई भी गुलाम रहना नहीं चाहता। हर कोई स्वतन्त्र रहना पसन्द करता है। एक देश दूसरे देश की गुलामी और अधिकार में नहीं रहना चाहता, एक जाति दूसरी जाति के दबाव में रहना पसन्द नहीं करती।
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