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२४८ चिंतन की मनोभूमि
स्वरूप क्या है ? आनन्दमय ? मतलब यह हुआ कि सुख की साधना करते समय दुःख का अनुभव होता है, यह तो गलत बात है । अमृत पीते हुए जहर - सी कड़वी घूँट लगती है, तो या तो वह अमृत नहीं है, या फिर पीना नहीं आया है। साधना में तो आनन्द और सुख की रसधारा बहनी चाहिए। जिस साधना के उत्स से सुख का स्रोत न फूटे, वह साधना ही क्या । वह तो परवशता की साधना है, जिसमें क्लेश और पीड़ा के काँटे चुभते रहते हैं। वह स्वतंत्र साधना कदापि नहीं है। उस साधना से, जिससे दुःख की अनुभूति होती है, क्या कर्म की निर्जरा हो सकेगी या नए कर्मों का बंध हो पाएगा ? जहाँ मन में दुःख है, वहाँ परवशता है, जहाँ परवशता है, वहाँ बन्धन है। तो, वह साधना तो उलटे कर्मबन्ध का कारण ही बन गई इसलिए मैंने कहा कि इस साधना से तो साधना नहीं करना अच्छा है।
शरीर का दुःखी और कष्टमय होना एक अलग बात है और मन का दुःखी होना अलग बात। साधना शरीर की नहीं, चैतन्य की होती है।
अभिप्राय यह है कि यदि शरीर को कष्ट होता हो, भले ही हो, वह जड़ है, किन्तु चैतन्य को कष्ट नहीं होना चाहिए । आत्मा की प्रसन्नता बनी रहनी चाहिए। मैं तो कभी-कभी कहता हूँ कि यदि तपस्या करने से आत्मा की प्रसन्नता और मन की स्वस्थता बनी रहती है, तब तो ठीक है, और यदि आत्मा कष्ट पाती है, मन को क्लेश होता है, खिन्नता बढ़ती है तो वह तपस्या कोई कल्याण करने वाली नहीं है, सिर्फ देह - दंड है, अज्ञान तप है। आचार्यों ने ठीक ही कहा है
"सो नाम अणसण तवो जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ ।
"
जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हायति ॥ '
संयम की साधना इसलिए की जाती है कि उससे आत्मा में प्रसन्नता जगती हैं। भावनाएँ शुद्ध, पवित्र एवं शान्त रहती हैं । यदि संयम पालते हुए भी भावना अशान्त हो, हृदय क्षुब्ध हो, आत्मा विषय-भोग के लिए तड़पती हो, वह साधना एक धोखा भर है। धोखा अपनी आत्मा के साथ भी और संसार के साथ भी, जो तुम्हें सच्चा साधक समझ रहा है।
भगवान् ने बतलाया है कि जिस साधक का मन साधना के रस में रम गया है, उसे साधना में आनन्द आता है। शरीर के कष्टों से उसकी आत्मा कभी विचलित नहीं होती । यदि कभी मन चंचल हो भी गया, तो उसे पुनः शान्त और समाधिस्थ कर लेता है ।
हमारे कुछ साधक यह भी कहते हैं कि साधना में पहले दुःख होता है और बाद में सुख ! किन्तु यह तो बाजारू भाषा है। यह निरी सौदेबाजी की बात है, कि कुछ दुःख सहो तो फिर सुख मिले। जिस साधना के आदि में ही दुःख है, कष्ट है, उसके मध्य में और अन्त में सुख कहाँ से जन्म लेगा ? यह साधना की सही व्याख्या
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