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स्वरूप की साधना । २४७ नहीं हो जाती है, तब तक प्राणी उसे पाने के लिए प्रयत्न करता रहता है। यह बात दूसरी है कि जो सुख नहीं है, उसे भी हमने अज्ञानवश सुख की कल्पना से जोड़ लिया है। धन, परिवार और भोग का सुख; अज्ञान की कल्पना के साथ जुड़ा है। पर यह अज्ञान भी तो हमारा ही है। ज्ञानी को ही अज्ञान होता है, और जो अज्ञान को समझता है कि यह 'अज्ञान है' वही ज्ञानी होता है। आप अँधेरे में चल रहे हैं, कोई ठूंठ खड़ा दिखाई दिया, आपने कल्पना की, शायद कोई आदमी है, पर जब प्रकाश की कोई किरण. चमकी और आपने देखा कि यह आदमी नहीं, ठूंठ है, तो यह भी ज्ञान है, अपना अज्ञान वही समझ सकता है, जो ज्ञानी है। ज्ञानी का अज्ञान क्या हैविपरीत ज्ञान, या भ्रम ! ज्ञान का अभाव अज्ञान नहीं है। वह अज्ञान तो जड़ के पास है, जिसे कभी भी ज्ञान नहीं हो पाता। चेतन के स्वभाव में यह अज्ञान रह नहीं सकता । भले ही ज्ञान की गति विपरीत चल रही हो, परन्तु वह समय पर ठीक हो सकती है । किसी के पास बहुत सा धन है, तो वह धनी है, फिर उस धन का गलत उपयोग करता है, तो यह बात दूसरी है, किन्तु समय पर ठीक उपयोग भी कर सकता है।
मैं कह रहा था कि अज्ञानवश जिसे सुख समझ लिया है और उसके पीछे दौड़ लगा रहे हैं, वह भी हमारी तीव्र सुखेच्छा का व्यक्त रूप है । इसीलिए एक दिन भगवान् महावीर ने कहा था
'सव्वेपाणा सुहसाया, दुहपडिकूला'
भूमंडल के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, सुखं उन्हें प्रिय है, सुख की साधना कर रहे हैं, दुःख से कतराते हैं। सुख का यह स्वर कहाँ से आया ? सुख की कामना क्यों जागी हमारे अन्दर ? इसीलिए न कि सुख हमारा स्वरूप है ! स्वयं सुखी रहना, यही हमारी साधना है। आपको कोई सुखी देख कर यह पूछे कि आप सुखी क्यों हैं? तो क्या उत्तर होगा आपका ? शायद आपका टेम्प्रेचर चढ़ जाए और आप डाँटते हुए कह उठें कि तुम्हें इसकी क्या पड़ी कि हम सुखी क्यों हैं ? प्रसन्न क्यों हैं ? सुखी नहीं तो क्या दुःखी रहें ? मुहर्रमी सूरत बनाए बैठे रहें ? संसार में मुँह लटकाए घूमते रहें ? यह जीवन सुख के लिए है, सुखी और प्रसन्न रहने के लिए है । हँसने और हँसाने के लिए है, रोने- चीखने के लिए नहीं ।
साधना में दुःखानुभूति क्यों ?
कभी-कभी हमारे साधक कहते हैं कि सुखी रहने की बात कुछ समझ में नहीं आती। मैं पूछता हूँ कि इसमें क्या आपत्ति है ? तो कहते हैं-"साधना करतेकरते तो दुःख का अनुभव होता है, कष्ट और पीड़ाएँ होती हैं। " मैं कहता हूँ कि यदि साधना करते हुए दुःख की अनुभूति जगती है, मन खिन्न होता है, तो वह साधना कैसी ? ऐसी दुःखमयी साधना से तो साधना न करना ही अच्छा है। साधना का तो अर्थ है-उपासना ! किन्तु उपासना किसकी ? अपने स्वरूप की ही न ! लेकिन
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