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________________ २४६ चिंतन की मनोभूमि कोई अपने आपको 'शूट' करदे तो उसने किसी दूसरे की जान तो नहीं लूटी ? फिर आप गुरु से पूछें तो वे कहेंगे कि यदि दूसरे को मारना पाप है, तो अपने को मारना महापाप । आत्म-हत्या करने वाला नरक में जाता है। कानून से पूछो, तो वह कहेगा कि यह अपराध है । आत्म हत्या का प्रयत्न करते हुए कोई पकड़ा गया, वह अपराधी है। तो कोई जी रहा है, और वह पूछे कि क्या यह जीना भी पाप है ? तो क्या कोई कहेगा कि हाँ, जीना पाप है। जीना भी पाप है, मरना भी पाप है, तो फिर संसार में धर्म क्या रह गया ? धर्म कहता है कि-न तू मर! न किसी को मार ! बस यही धर्म है । भगवान् महावीर ने अहिंसा का उद्गम भी इसी जिजीविषा के अन्तर से बताया है, उन्होंने कहा है " सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ " संसार के समस्त प्राणी जीना चाहते हैं जीने की कामना, इच्छा प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान है, मरना कोई नहीं चहता, इसीलिए किसी का वध करना, मारना, यह पाप है। मतलब यह है कि 'जीना' यह स्वरूप है और स्वरूप धर्म है। आप देखेंगे कि अहिंसा का स्वर किस भावना से फूटा है ? जीवित रहने की भावना से ही न! हम प्रत्येक प्राणी के प्रति सहृदय रहते हैं । सहृदय की साधना आखिर क्यों है ? सभी प्राणी एक-दूसरे के प्रति सहृदय रहें । परस्पर सहृदयता, प्रेम, करुणा, सहयोगये सब हमारी जीवित रहने की भावना के ही विकसित रूप हैं । उसी महावृक्ष की ये अनेक शाखाएँ हैं। सुख की भावना : दूसरी भावना - सुख की भावना है। हम इस विश्व - मंडल की अनन्त - अनन्त परिक्रमा कर चुके हैं और कर रहे हैं, लेकिन किसलिए ? सुख के लिए ही तो ! सुख की भावना और कामना से प्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी प्रयत्नशील रहता है। निष्कर्ष यह है कि सुख आत्मा का स्वरूप है। स्वरूप की माँग, खोज आत्मा करती है । भगवान् का स्वरूप वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि वह आनन्दमय है । इसके आगे बढ़े तो कह दिया कि वह सच्चिदानन्द रूप है। सचिद् और आनन्द यह एक शिखर की बात कह दी है। उच्चतम आनन्द की कल्पना इसके साथ जुड़ गई है। लेकिन इससे यह तो हमने समझ ही लिया कि भगवान् का स्वरूप आनन्दमय है, सुखमय है। जो उसका स्वरूप है, वही हमारा स्वरूप है। स्वरूप, उसका और हमारा भिन्न नहीं है। जो भगवान् का स्वरूपं है, वह प्रत्येक प्राणी का स्वरूप है। तभी हम कहते हैं कि प्रत्येक घंट में भगवान् का वास है। जब तक उस आनन्द की उपलब्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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