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________________ स्वरूप की साधना | २४५ होगा ? जीवन का क्या होगा ? यह होगा कि दो चार दस दिन भूखे रहें, पेट में अन्न-जल नहीं गया, तो दुनिया 'राम नाम सत्त' कहकर पहुँचा देगी उस घाट पर, जहाँ सबकी राख हो जाती है। मतलब यह है कि प्रत्येक प्रयत्न का मूल कारण यही जीने की भावना है -- जिजीविषा है। जीने के लिए संघर्ष करने होते हैं, कष्ट और द्वन्द्व झेलने होते हैं, पीड़ा और यातनाएँ सहकर भी कोई मरना नहीं चाहता । इधर-उधर की कुछ समस्याओं से घबड़ाकर आदमी कहता है कि मर जाएँ तो अच्छा है, पर, जब उन समस्याओं का समाधान हो जाता है, तो फिर कोई नहीं कहता कि मर जाएँ तो ठीक है । कहावत है 'मौत मौत पुकारने वाली बुढ़िया को जब मौत आती है, तो पड़ोसी का घर बताती है । " 44 संसार का यह अजर-अमर सिद्धान्त है कि प्रत्येक प्राणी चाहे वह कष्ट में जीता हो, पीड़ाओं में से गुजर रहा हो, या सुख और आनन्द में जीवन बिता रहा हो, दोनों के जीवन की इच्छा समान है- "सदृशी जीवने वांच्छा ।" जिजीविषा जीव का स्वभाव है और प्रत्येक प्राणी इस स्वभाव की साधना कर रहा है। हमारी साधना इसी दृष्टिकोण से पल्लवित हुई है । साधना स्वरूप की होती है । अग्नि की साधना उष्ण रहने की साधना है, उसे शीतल रखने की यदि कोई साधना करे, तो वह बेवकूफी होगी। हवा की साधना अनवरत चलते रहना है, उसे यदि स्थिर रखने की साधना कोई करे, तो वह स्वरूप की विपरीत साधना होगी । हमारे जीवन की साधना अमरता की साधना है, कभी नहीं मरने की साधना है और हमारा साध्यं भी अमरता है। मरने की साधना कोई नहीं करता, चूँकि वह स्वरूप नहीं है, हम स्वरूप के उपासक हैं। अमरता की उपासना : भारतीय दर्शन की अन्तिम परिणति यही है, कि तुम अपने स्वरूप को समझलो, बस यही तुम्हारी साधना है। स्वरूप को जब पहचान लिया कि अमर रहना, यह हमारा चैतन्य का स्वरूप है, तो अमरता की साधना प्रारम्भ हो जाती है अमर रहने के लिए ही हमारी साधना चलती है, इससे आगे कहूँ तो यह कह सकता हूँ कि जीने के लिए ही हमारी साधना चल रही है। आप कहेंगे कि " क्या इतने पिछले स्तर पर हमारी साधना है ? सिर्फ जीने के लिए ?" मैं पूछूं– यदि जीने के लिए नहीं है, तो क्या मरने के लिए हैं ?" जीना और मरना दो ही तो दृष्टियाँ हैं । मरना गलत दृष्टि है, जीना सही दृष्टि है। मरण नहीं, बल्कि अनन्त जीवन को केन्द्र मानकर ही संसार की समस्त साधनाएँ चलती हैं। मैं अपने आपको क्यों नहीं मारता ? इसीलिए कि आत्म-हत्या करना पाप है। पाप क्यों है ? पाप यों है, कि वह स्वभाव के विरुद्ध है। अपने को मारना पाप है, तो मतलब यह हुआ कि मृत्यु ही पाप है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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