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________________ 388 29688888 52880062600200 २९ स्वरूप की साधना यह चैतन्य का महासागर हमारे अन्तर में अनन्त-अनन्त काल से हिलोरें मारता चला आ रहा है। चेतना के इस विराट् सागर को छोटे से पिण्ड में समाया हुआ देखकर, एक ओर आश्चर्य भी होता है, तो दूसरी ओर उसकी अनन्त शक्ति पर विश्वास भी। चेतना का जो विराट् स्वरूप हमारे भीतर प्रकाशमान है, वही स्वरूप एक चींटी और चींटी से भी असंख्य गुने छोटे प्राणी के अन्तर में प्रकाशित हो रहा है। वहाँ भी चैतन्य का वही रूप छिपा हुआ है। महासागर के तट पर जिधर भी नजर उठाकर देखो, उधर ही तूफान और लहरें मचलती हुई दीखेंगी। यही बात जीवन के महासागर के किनारे खड़े होकर देखने से लगेगी कि चैतन्य के महासागर में चारों ओर से असंख्य-असंख्य लहरें उछल रही हैं, उसकी कोई सीमा नहीं हैं, चैतन्य के अनन्त भाव इस महासागर में तरंगित हो रहे हैं। ... यह बात नहीं हैं कि सिर्फ देवता और चक्रवर्ती के जीवन में या मानव के जीवन में ही चेतना की अनन्त धाराएँ प्रस्फुटित होती रहती हैं, बल्कि चींटी और मच्छर जैसे क्षुद्र जीवों में भी वही धारा अपने अनन्त-अनन्त रूपों में बहती होती है, भले ही उनकी अव्यक्त चेतना के कारण हमारी समझ में उनका सही रूप आए या नहीं! किन्तु जीवन के अव्यक्त या कम विकसित होने के कारण चेतना की धाराएँ लुप्त नहीं हो सकतीं। किसी के जीवन में वे धाराएँ गलत रूप से बह रही होती हैं, तो किसी के जीवन में सही रूप में। देखना यह है कि वे धाराएँ, वे.लहरें, जीवन के निर्माण में हाथ बँटा रही हैं, उसे अभ्युत्थान की ओर ले जा रही हैं या विनाश तथा पतन की ओर ! विनाश, पतन और विध्वंस की ओर जो धाराएँ बह रही हैं, उनके वेग को, उनकी दिशा को मोड़ देना, निर्माण की ओर लगाना, यह हमारी व्यक्त चेतना का काम है। चेतन की मूल भावना : - दर्शनशास्त्र ने जो चिन्तन, मनन और अनुभव किया है, सत्य का जो साक्षात्कार किया है, उसका निचोड़ यही है कि अन्तर में सबका मूल चेतन समान है, उसमें कोई भेद नहीं है। जो भेद दिखाई देता है, वह बाहर के स्वरूपों में है, बाहरी धाराओं में है। बाहर में जो गलत धाराएँ, लहरें उछल रही हैं. उन्हें चाहे भावनाएँ कह दीजिए. वृत्तियाँ या आदत कह लीजिए. और भी हजार नाम हो सकते हैं, उनका जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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