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१२४२ चिंतन की मनोभूमि
"जो तू देखे अन्ध के, आगे है इक कूप।
तो तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघ रूप॥" अंधे को यदि आप देख रहे हैं कि वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उस मार्ग पर आगे बड़ा गड्ढा है, खाई है या कुआँ है, और यदि वह चलता रहा, तो उसमें गिर पड़ेगा, ऐसी स्थिति में यदि आप चुपचाप बैठे मजा देखते रहते हैं, अन्धे को बचाने की कोशिश नहीं करते हैं, तो आप उसे गिराने का महापाप ले रहे हैं। यह नहीं होना चाहिए कि कोई संकट में फँस रहा है, और आप चुपचाप उसे देखते ही रह जाएँ! और फँसने के बाद ऊपर से गालियाँ भी दें कि गधा है, बेवकूफ है! और फिर डंडे भी बरसाएँ।
. बात यह है कि ईश्वर जब सर्वशक्तिमान है, वह प्राणियों को शुभ-अशुभ कर्म का फल भुगताता है, तो उसे पहले प्राणियों को असत्कर्म से हटने की प्रेरणा भी देनी चाहिए और सत्कर्म में प्रवृत्त करना चाहिए। पर यह ठीक नहीं कि उसे असत्कर्म से निवृत्त तो नहीं करे, उलटे दण्ड और देता रहे। आत्मा ही कर्ता है :
ईश्वर के सम्बन्ध में ये जो गुत्थियाँ उलझी हुई हैं, उन्हें सुलझाने के लिए हमें भारतीय दर्शन के आत्म-दर्शन को समझना पड़ेगा। आत्मा स्वयं अपनी प्रेरणा से कार्य करती है और स्वयं ही उस कर्म के अनुसार उसका फल भोगती रहती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में बार-बार दुहराया है।
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्" आत्मा का आत्मा से ही कल्याण किया जा सकता है और आत्मा के द्वारा ही उसका पतन हो सकता है। इसलिए अपने द्वारा अपना अभ्युत्थान करो, उद्धार करो! पतन मत होने दो। यह आत्मा की स्वतन्त्रता की आवाज है, अखण्ड चेतना का प्रतीक है। कर्म कर्तृत्व, और कर्मफल-भोग दोनों आत्मा के अधीन हैं। अतः आत्मस्वरूप की पहचान कर, अपनी पथ-दिशा तय करना, शुद्धता की प्राप्ति करना ही, अमरता का एकमात्र मार्ग है।
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