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अमरता का मार्ग : २४१ ---यह आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका फल भोगती है। स्वयं संसार में परिभ्रमण करती है और स्वयं ही संसार से मुक्त भी होती है। ईश्वर असत्कर्म क्यों करवाता है ?
हमारे कुछ बन्धु इस विचार को लिए चल रहे हैं कि ईश्वर ही मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। वह चाहे तो किसी से सत्कर्म करवा लेता है और चाहे तो असत्कर्म! उसकी इच्छा के बिना सृष्टि का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।
किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कर्म करवाने का अधिकार ईश्वर के हाथ में है, तो फिर वह किसी से असत्कर्म क्यों करवाता है ? सब को सत्कर्म की ही प्रेरणा क्यों नहीं देता ? कोई भी पिता अपने पुत्र को बुराई करने की शिक्षा नहीं देता, उसे बुराई की ओर प्रेरित नहीं करता। फिर यदि ईश्वर संसार का परम पिता होकर भी ऐसा करता है, तो यह बहत बड़ा घोटाला है। फिर तो जैसा यहाँ की सरकार में भी गड़बड़ घोटाला चल रहा है, वैसा ही ईश्वर की सरकार में भी चल रहा है। जो पहले बुराई करने की बुद्धि देता है और फिर बाद में उस के लिए दण्ड दे, यह तो कोई न्याय नहीं! जैसा कि लोग कहते हैं
"जा को प्रभु दारुण दःख देही
ताकी मति पहले हर लेही।" मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं आई कि ऐसी ईश्वर-भक्ति से हमें क्या प्रयोजन है ? " भगवान् जिसको दुख देना चाहता है, उसकी बुद्धि पहले नष्ट कर देता है।'' मैं पूछता हूँ, बुद्धि नष्ट क्यों करता है ? उसे सद्बुद्धि क्यों नहीं दे देता, ताकि वह बुरे कार्य में फंसे ही नहीं और न फिर दुःख ही पाए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी! ईश्वर किसलिए हमें असत्कर्म की प्रेरणा देता है, यह पहेली, मैं समझता हूँ, आज तक कोई सुलझा नहीं सका।
दूसरी बात यह है कि कुछ विचारक कर्म का कर्तृत्व तो आत्मा का स्वतन्त्र मानते हैं, किन्तु फल भोगने के बीच में, ईश्वर को ले आते है। वे कहते हैं कि प्राणी अपनी इच्छा से सत्कर्म-असत्कर्म करता है, किन्तु ईश्वर एक न्यायाधीश की तरह उसे कर्म फल को भुगताता है। जैसा जिसका कर्म होता है, उसे वैसा ही फल दिया जाता है।
यह एक सीधी-सी बात है कि एक पिता पुत्र को बुराई करते समय तो नहीं रोके, किन्तु जब वह बुराई कर डाले है, तब उस पर डण्डे बरसाए। तो इससे क्या वह योग्य पिता हो सकता है ? उस पिता को आप क्या धन्यवाद देंगे जो पहले लड़कों को खुला छोड़ देता है कि हाँ, जो जी में आए सो करो, और बाद में स्वयं ही उन्हें पुलिस के हवाले कर देता है। क्या यह व्यवहार किसी न्याय की परिभाषा में आ सकता है ? हमारे यहाँ तो यहाँ तक कहा जाता है कि
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