________________
२४० | चिंतन की मनोभूमि
दिल्ली में वह गर्म हो और मास्को में ठण्डी हो । दिल्ली में प्रकाश करती हो और मास्को में अँधेरा करती हो। ऐसा नहीं होता, चूँकि उसका स्वरूप सर्वत्र एक समान है । जब स्वरूप समान है तो उसकी सब धाराएँ भी एक समान ही रहेंगी । प्रत्येक आत्मा जब मूल स्वरूप से एक समान है, तो उसकी चिन्तनधारा कल्पना भी समान होगी। इसलिए ये तीनों भावनाएँ प्रत्येक आत्मा में समान रूप से पाई जाती हैं। हमारी प्रवृत्तियों का लक्ष्य एक ही रहता है कि दुःख से मुक्ति मिले। अशुद्धि से शुद्धि की ओर चलें, मृत्यु से अमरता की ओर बढ़ें।
वह
प्रश्न यह है कि दुःख से छुटकारा क्या कोई देवता दिला सकता है ? कोई भगवान् हमें मृत्यु से बचा सकता है ? यदि ऐसी कोई शक्ति संसार में मिले जो हमें सुखी, शुद्ध और अमर बना सके, तो हम उसकी खुशामद, भक्ति या प्रार्थना करें ! भारतीय दर्शन, जो वास्तव में ही एक आध्यात्म चेतना का दर्शन है, कहता है कि संसार की कोई अन्य शक्ति तुम्हें दुःख से बचा नहीं सकती । मृत्यु मुँह से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती। तुम्हारी अपवित्रता को धोकर पवित्र नहीं बना सकती। यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो, तुम स्वयं ही अपने जीवन के निर्माता हो, तुम्हीं अपने भाग्य के नियामक हो ।
के
-
दुःख किसने दिया ?
प्रश्न यह है कि दुःख से छुटकारा तो चाहते हो, पर वह दुःख खड़ा किसने किया ? भगवान् महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पहले यही प्रश्न संसार से पूछा था कि तुम दुःख - दुःख तो चिल्ला रहे हो, दुःख से मुक्ति के लिए नाना उपाय तो कर रहे हो, पर यह तो बतलाओ कि यह दुःख पैदा किसने किया—
"दुक्खे केण कडे ?"
इस गम्भीर प्रश्न पर जब सब कोई चुपचाप भगवान् की ओर देखने लग गए और कहने लगे कि प्रभु ! आप ही बतलाइए ! तो भगवान् महावीर ने इसका दार्शनिक समाधान देते हुए कहा— 'जीवेण कडे! पमाएण' दुःख आत्मा ने स्वयं किये हैं । प्रश्न हो सकता है कि आत्मा ने अपने लिए दुःख पैदा क्यों किया? तो उसका उत्तर भी साथ ही दे दिया कि "पमाएण" प्रमादवश उसने दुःख पैदा किया। वह किसी दूसरे के द्वारा नहीं थोपा गया है, किन्तु अपने ही प्रमाद के कारण वह दुःख अर्जित हुआ है। यह अशुद्धि भी किसी दूसरे ने नहीं लादी है, बल्कि अपनी ही भूल के कारण आत्मा अशुद्ध और मलिन होती चली गई है। जो काम अपने प्रमाद और भूल से हो गया है, उसे स्वयं ही सुधारना पड़ेगा। कोई दूसरा तो आ नहीं सकता । इसीलिए एक आचार्य ने कहा है
Jain Education International
"स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org