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________________ २८ अमरता का मार्ग संसार में जितने भी प्राणी हैं, जितनी भी आत्माएँ हैं, सब के भीतर जो ध्वनि उठ रही है, कल्पना उभर रही है और भावना तरंगित हो रही हैं, उनमें से एक हैसुख प्राप्त करने की अभिलाषा। परिस्थितिवश जीवन में जो भी दु:ख आ रहे हैं, विपत्तियाँ आ रही हैं, उन्हें मन से कोई नहीं चाहता, सब कोई उस दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं। संसार के समस्त प्राणियों की एक ही आकांक्षा है कि दुःख से छुटकारा हो, सुख प्राप्त हो। दूसरी बात जो प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है, वह यह है कि प्रत्येक प्राणी शुद्ध और पवित्र रहना चाहता है। कोई भी प्राणी अपने आप को अशुद्ध या मलिन नहीं रखना चाहता, गन्दा नहीं रहना चाहता। मौलिक चीजों में भी वह गन्दगी पसन्द नहीं करता. मकान भी साफ रखना चाहता है, कपड़े भी साफ-सुथरे पसन्द करता है और शरीर को भी स्वच्छ-साफ रखता है। मतलब यह है कि अशुद्धि के साथ भी उसका संघर्ष चलता रहता है। तीसरी बात यह है कि कोई भी प्राणी मृत्यु नहीं चाहता। मृत्यु के बाद फिर जन्म लेना होता है और जन्म के बाद फिर मृत्यु ! इसका अर्थ यह हुआ कि जो मृत्यु नहीं चाहता, वह जन्म ग्रहण करना भी नहीं चाहता। हर प्राणी अजर अमर रहना चाहता है। यह बात दूसरी है कि कुछ विकट स्थितियों में मनुष्य अपने मन का धैर्य खो बैठता है और आत्म-हत्या कर लेता है, किन्तु वह आत्म-हत्या भी दुःख से छुटकारा पाने के लिए ही करता है। उसे आगे सुख मिले या नहीं, यह बात दूसरी है। कल्पना एक : स्वरूप एक: __इस प्रकार विश्व की प्रत्येक आत्मा में ये तीन भावनाएँ उभरती हई प्रतीत होती हैं। विश्व के समस्त प्राणियों का चिन्तन एक ही धारा में बह रहा है, एक प्रकार से हो सभी सोच रहे हैं, ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है कि सब आत्माएँ समान हैं। शास्त्र में कहा गया है, 'एगे आया' । स्वरूप की दृष्टि से सबकी आत्मा एक समान है। सब की मूल स्थिति एक ही जैसी है। जब स्वरूप की दृष्टि से आत्मा-आत्मा में कोई अन्तर नहीं, तो चिन्तन की दृष्टि से भी कोई अन्तर नहीं होना चाहिए! अग्नि की ज्योति जहाँ भी जलेगी, वहाँ उष्णता प्रकट करेगी, चाहे वह दिल्ली में जले, या मास्को में जले। उसकी ज्योति और उष्णता में कहीं भी कोई अन्तर नहीं आता कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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