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| २३८ चिंतन की मनोभूमि
छोटे हैं ! हमलोग युद्ध में जा रहे हैं। सेनापति ने भी यही कहा । राजमाता और अन्य हितैषियों ने भी राजकुमार को यही समझाया कि तुम अभी बालक हो, अतः राजमहल में ही रहो ! हम सब तुम्हारे ही तो हैं ! ललितादित्य ने कहा- आप सब मेरे हैं, तो मैं भी तो आपका ही हूँ। प्रजा जब राजा की है, तो राजा भी प्रजा का है। प्रजा किस आधार पर है उसका जनक कौन है ? राजा ही न ! और राजा किस पर टिका है ? राजा को जन्म कौन देता है ? प्रजा ! लेकिन प्रजा रणक्षेत्र में जूझती रहे और राजा राजमहल में एक चूहे की तरह छिपा -दुबका रहे, यह कौन-से क्षात्रधर्म की बात है ? यह क्षात्रधर्म पर कलंक नहीं तो और क्या है ! मैं युद्धक्षेत्र में जाऊँगा अवश्य जाऊँगा !
राजमाता ने उसकी पीठ थपथपाई। कहा - बेटा अपने पिता के गौरव को उज्ज्वल करना, और अपने देश की यश पताका को ऊँची करना ! इस पर ललितादित्य ने जो उत्तर दिया वह एक महान् वीर का उत्तर था । उसने कहा- "मेरे सामने तो सिर्फ एक बात है और वह मैं कर सकता हूँ, चाहे मैं जिन्दा रहूँ या रणक्षेत्र में खेल जाऊँ, मुझे इसकी परवाह नहीं! जय और पराजय पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं । मेरे वश की जो बात है, वह यह है कि शत्रु के शस्त्रों के घाव मेरी पीठ पर नहीं लगेंगे। मेरी मृत्यु और जीवन से भी बढ़कर जो बात है, वह यही है कि शत्रु के शस्त्रों के वार मेरी छाती पर ही पड़ेंगे बस ! पीठ पर कदापि नहीं पड़ सकते !" मतलब यह हुआ कि जीना और मरना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं, महत्त्वपूर्ण जो है, वह हैवीरतापूर्वक जीना और वीरतापूर्वक मरना ।
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साधक के लिए भी यही बात है । वह जीवन में साधना के जिस महापथ पर चलता है, वह पथ बड़ा विकट है। विकारों के तूफान उस पथ में आएँगे, तो उसे हिमालय की तरह अचल - अकम्प बनकर सहना होगा- " मेरुव्व वाएण अकंपभाणो । " प्रलयकाल के थपेड़ों में भी मेरु की तरह अकम्प, अडोल, अविचल रहना होगा और जब कषायों का दावानल उठेगा, साधक को उसे वैराग्य का पर्जन्य बनकर शान्त करना होगा। कष्टों, अपमानों का हलाहल भी उसके सामने आएगा और तब महादेव बनकर उसे पीना होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक जगह कहा है.. -
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“मनुज दुग्ध से, दनुज रक्त से, देव सुधा से जीते हैं।
किन्तु हलाहल भवसागर का, शिवशंकर ही पीते हैं । "
तो, इस भवसागर का हलाहल पान करकेही उसे मृत्युञ्जय बनना होगा। तभी वह अपने कल्याण मार्ग की अन्तिम मंजिल को पा सकेगा, जहाँ पहुँचने के बाद आत्मा अमर शान्ति, सत् चित् आनन्द और अनन्त ज्योतिरूप बन जाती है ।
कल्याण का मार्ग, इस प्रकार, जीवन और जगत् के कर्म कषायों का पान करके, उसको आत्मसात करके ही, प्रशस्त किया जा सकता है। गंगा विश्व की गन्दगियों को आत्मसात् करके जितना समतल में पवित्र हो सकी, उतना गंगोत्तरी–उद्गम में नहीं । गंदगियों को आत्मसात् करके, उसका अन्त करके ही विश्व का कल्याण सम्भव है, आत्मा का शुभ से शुद्ध की ओर ले जाना, इसी का पर्यायविशेष है ।
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