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________________ कल्याण का मार्ग २३७ लिखित आगम है, वह अक्षर रूप है। तो क्या यह शब्द और अक्षर रूप वाणी ही तीर्थ है ? यह तो शाश्वत है नहीं ! जब भी तीर्थङ्कर होते हैं, सिद्धान्त की प्ररूपणा वे अपनी साधना के अनुरूप करते हैं, और गणधर उसे सूत्र रूप में गूँथते हैं, फिर तो यह शाश्वत कैसे? फिर भगवान् का सिद्धान्त तीर्थ क्या वस्तु है ? सिद्धान्त रूप तीर्थ का अभिप्राय तो यह है कि जो सत्य का ज्ञान है, इस संसार रूपी सागर को पार करने का मार्ग जिस ज्ञान की ज्योति से दिखाई देता है, वही ज्ञान तीर्थ है। काम, क्रोध आदि कषाय की विजय का जो साधना मार्ग है, वह तीर्थ है और वह मार्ग शाश्वत है, अनादि अनन्त है। जितने भी तीर्थंकर, महापुरुष संसार में आज तक हो चुके हैं, अभी जो हैं और भविष्य में जो भी होंगे-वे सब यही मार्ग बताएँगे ! काम, क्रोध को नाश करने का ही उपदेश' वे करेंगे, मोह और माया को विजय करने का ही मार्ग वे बताएँगे। यह त्रिकाल सत्य है, शाश्वत है। इस कथन का निष्कर्ष यह है कि हमारी जो साधना है, हमारा जो ज्ञान है, वही तीर्थ है और वह तीर्थ कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि आत्मा का निर्मल चैतन्य होता है। किसी प्रकार की भेद की कल्पना को उसमें प्रश्रय नहीं दिया जाता। जाति, सम्प्रदाय, लिंग और रंग की भाषा, भाषा धर्म की भाषा नहीं हो सकती । न वह साधना की भाषा हो सकती है, और न ही साधक की भाषा हो सकती है। साधकः एक अपराजेय योद्धा : साधना का क्षेत्र सबके लिए खुला है, यह बात जितनी सत्य है उतना ही सत्य यह भी है कि वह सिर्फ वीर के लिए हैं। साधना का मार्ग कंटकाकीर्ण और विकट मार्ग है। आचारांग सूत्र में उसे महावीथि - महापथ कहा है- " पणया वीरा महावीहिं" उस पथ पर वही चल सकता है, जिसके अन्तस्तल में अपार धैर्य उमड़ता हो, साहस और सहिष्णुता का ज्वार उठ रहा हो ! जो विषयों और आकांक्षाओं से लड़कर विजय प्राप्त कर सकता हो, वही वीर योद्धा इस क्षेत्र का अधिकारी हो सकता है। यह नहीं कि वेष ले लिया, आराम से माँगकर खा लिया, निश्चित होकर सो गए और सुख-चैन से जिन्दगी गुजार दी ! जब तक कष्ट नहीं आए, जीवन में तूफान नहीं आए, संघर्षों के भूचाल नहीं उठे, तब तक जमे रहे और जब तूफानों का सामना करना पड़ा, तो बस भाग खड़े हुए, पाँव उखड़ गए ! वह वीर नहीं, जो तलवारों की चमक देखकर पसीना-पसीना हो जाए! भालों और वाणों की बौछार देखकर कलेजा धक् धक् कर उठे। बल्कि वीर वही है, जो प्राणों पर खेले, वीरता से जीए और मरे भी तो वीरता से मरे ! मुझे कश्मीर के राजा ललितादित्य की एक बात याद आ रही है। जब देश पर आक्रमण हुआ, तो वे बहुत कम उम्र के बालक थे। पिता का देहान्त हो जाने से शत्रु ने अनुकूल अवसर देखा और चढ़ाई कर दी। इधर भी प्रधानमन्त्री ने युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दीं। राजकुमार से उसने कहा- आप तो यहीं पर रहिए, अभी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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