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________________ | २३६ चिंतन की मनोभूमि शरीर के रक्त सम्बन्ध से चली आने वाली कोई नस्ल नहीं है। वह तो एक आध्यात्मिक नस्ल है, जिसके आधार पर धर्म का सम्बन्ध चलता है, ज्ञान की परम्परा चलती है। साधना : एक पावन तीर्थ : भारत के संतों की स्पष्ट घोषणा है कि धर्म के द्वार पर आपकी आति, आपका रंग-रूप नहीं पूछा जाता, वहाँ ज्ञान पूछा जाता है, आध्यात्मिक साधना की तैयारी कितनी है, वह देखी जाती है। संत कबीर ने ठीक ही कहा है "जाति न पूछो साध की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान॥" साधक की जाति और वेश मत पूछो । पूछना है तो यह पूछो कि उसमें ज्ञान का प्रकाश कितना है ? उसकी साधना में तेज कितना है ? तलवार का अपना मूल्य है। यदि वह सोने की म्यान में है, तब भी उसका वही मूल्य है और कपड़े या लकड़ी की म्यान में है,तब भी वही बात है। वीर के हाथ जब तलवार आती है, तो वह उसकी म्यान नहीं देखता, उसकी धार देखता है। मेरे सामने एक पुस्तक आई, उसकी ऊपरी साज-सज्जा बड़ी चित्ताकर्षक थी। छपाई सफाई भी सुन्दर थी। किन्तु जब पन्ने पलट कर पढ़ा तो सामग्री कुछ भी नहीं मिली। नहीं से मतलब यह कि उसकी रचनाओं में कोई प्रतिभा या चमत्कार और मौलिकता नाम की कोई चीज न थी! अब यदि उसकी साज-सज्जा पर हम मुग्ध हो जाएँ, तो फिर विवेक की कसौटी क्या रही? जो विद्वान् है, वह उसका मूल्यांकन छपाई सफाई से नहीं, अपितु सामग्री से करता है। बात यह है कि साधक का मूल्यांकन भी उसके कुल या शरीर से नहीं होता, बल्कि शील और सदाचार से होता है। साधना की तेजस्विता से होता है। जैन साहित्य में एक 'तीर्थ' शब्द आता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका—इन्हें चतुर्विध तीर्थ माना गया है। मैं पूछता हूँ कि यह तीर्थ है क्या ? क्या साधु या साध्वी का शरीर तीर्थ है ? श्रावक-श्राविका तीर्थ का क्या अर्थ हुआ ? उनका धन, घर या शरीर ? यह भी कोई तीर्थ है ? यह तो तीर्थ नहीं, बल्कि तीर्थ तो है उनकी आध्यात्मिक साधना ! जिससे कि संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। वह साधना, जो व्यक्ति के अन्तर में उत्पन्न होती है, जीवन में विकसित होती है और मोक्ष के रूप में पर्यवसित होती है तीर्थ उसे ही कहा जा सकता है। साधु की साधना भी तीर्थ है, साध्वी की साधना भी तीर्थ है, और श्रावक-श्राविका की साधना भी तीर्थ है ! यह साधना जिस किसी व्यक्ति के हृदय में हिलोरें ले रही है, वही तीर्थ है। शास्त्रों में भगवान् के प्ररूपित सिद्धान्तों को भी तीर्थ कहा गया है और आगे यह भी कहा गया है कि वह शाश्वत तीर्थ है, अनादि, अनन्त है। इसका तात्पर्य भी आपको समझ लेना चाहिए कि जो भगवान् की वाणी है, वह तो शब्दरूप है, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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