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________________ | २३४ चिंतन की मनोभूमि समय में विकास पा रही थीं। राजा का विचार हुआ कि एक 'चित्रशाला' बनवाई जाए, पर वह ऐसी अद्भुत हो कि संसार भर में उसके जोड़ की कोई दूसरी चित्रशाला न मिले। उसमें कल्पना का कमनीय कौशल हो, रंगों का सतरंगी जाद हो। बस, कला की उत्कृष्टतम कृति हो वह चित्रशाला। राजा ने दो सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों को बुलाया और अपनी इच्छा प्रकट की। साथ में एक शर्त भी जोड़ दी कि दोनों के चित्र सर्वोत्कृष्ट होने चाहिए, किन्तु चित्र और शैली दोनों की एक समान हो। रंगों का मिश्रण भी एक समान हो और एक-दूसरे के चित्र कोई देखने न पाए! आप कहेंगे, बिल्कुल असम्भव! लेकिन असम्भव को संभव बनाने वाला ही तो सच्चा कलाकार होता है। चित्रकारों को छह महीने का समय दिया गया, और दोनों ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। बुद्धि, हृदय और शक्ति का सामंजस्य करके जुट गए दोनों । कला में प्राण तभी आ पाता है, जब उसमें बुद्धि के नए-नए उन्मेष खुले हों, भावनाओं का स्पंदन हो और हाथ में कौशल एवं सफाई का निखार हो। कला में जब तक बुद्धि एवं हृदय का संतुलन नहीं होता, तब तक वह कला नहीं, सिर्फ कर्म होता है, उसका कर्ता . कलाकार नहीं, कर्मकार कहलाता है। जब उसमें बुद्धि का योग होता है तो वह कर्म शिल्प कहलाता है, और वह व्यक्ति शिल्पकार होता है। जब कर्म में हृदय भी जुड़ जाता है, तब वह कर्म कला बन जाता है, और उस व्यक्ति को 'कलाकार' कहा जाता है। तो बात यह हुई कि उन कलाकारों ने अपना हृदय भी उस कला में उड़ेल दिया, बुद्धि का तेज भी उसमें भर दिया, तूलिका का चमत्कार तो था ही! छह महीने तक दोनों अपने-अपने ढंग से, बिना एक-दूसरे से मिले, अपने कार्य में जुटे रहे। समय पूर्ण हुआ, तो दोनों ने ही राजा से चित्रशाला में पधार कर कला का निरीक्षण करने की प्रार्थना की। राजा अपने महामात्य एवं अधिकारियों के साथ चित्रशाला में गया। पहले चित्रकार की कला देखी, तो राजा का हृदय बाग-बाग हो गया। राजा ने चित्रकार की बहुत प्रशंसा की। नई शैली में, नए रंगों में, भावों की ऐसी सुन्दर अभिव्यक्ति, राजा ने पहले कभी नहीं देखी थी। अब दूसरे कलाकर ने निवेदन किया_महाराज! जरा इधर भी कृपादृष्टि की जाए! राजा जब उसके कक्ष में पहुँचा, तो दंग रह गया। पूछा-चित्रकार ! यह क्या ? एक भी चित्र नहीं, भित्ति पर रंग की कहीं एक भी रेखा नहीं ? कहाँ हैं तुम्हारे चित्र ? छह महीने तक क्या किया तुमने ? खाट तोड़ी या दंड पेले ? चित्रकार ने निवेदन किया—महाराज! इसी में हैं मेरे सारे चित्र, यहीं पर अंकित हैं महाराज! राजा ने कहा—क्या मजाक तो नहीं है ? यहाँ तो सिर्फ दीवार है, साफ, चिकनी चमकती हुई! उस पर रंग का एक बिन्दु भी तो नहीं! बताओ कहाँ हैं तुम्हारे चित्र! चित्रकार ने बीच का पर्दा उठा दिया। पर्दा उठाते ही उधर के सब चित्र इधर प्रतिबिम्बित हो उठे। राजा और मन्त्री लोग बड़े आश्चर्य से देखते रहे गये। यह कैसा चमत्कार है ? सभी को बड़ा विस्मय हुआ। चित्रकार ने समस्या को सुलझाया कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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