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१ २३२ चिंतन की मनोभूमि
किसी प्रिय विषय में, या काम में जुड़ा रहता है, तो उसे यह अनुभव करने का अवसर ही नहीं आने पाता कि मैं बूढ़ा हूँ, क्या करूँ ? हाँ, तो बुढ़िया काम कर रही थी सिलाई का । कुछ सी रही थी, कि सुई हाथ से गिर गई। अब वह मिल नहीं रही थी, ज्यादा प्रकाश भी नहीं था, सोचा बाहर सड़क पर नगर महापालिका की बत्ती जल रही है, प्रकाश काफी है, चलो वहीं खोज ली जाए ! बाहर सड़क पर आई और इधर-उधर ढूँढ़ने लगी वह ! सुई थी तो क्या ? कितने काम की चीज थी वह, दो टुकड़ों को जोड़ने वाली थी न! आखिर भेद को मिटा कर अभेद कराने वाली होती है न सुई ! कोई परिचित सज्जन उधर से निकला, बुढ़िया को सड़क पर कुछ खोजते हुए देखा, तो पूछा-दादी ! आज क्या खोज रही हैं ? ' बेटा सुई गिर गई, उसे खोज रही हूँ ।' आगन्तुक ने सोचा, बेचारी बुढ़िया परेशान है। मैं ही क्यों न खोज दूँ । उसने इधर-उधर बहुत खोजा, पर सुई न मिली। आखिर पूछा-दादी ! कहाँ खोई थी वह ? किधर गिरी थी ?
बुढ़िया ने कहा- बेटा ! गिरी तो अन्दर थी, लेकिन अन्दर प्रकाश नहीं था, इसलिए सोचा, चलो प्रकाश में खोज लूँ, प्रकाश में कोई भी चीज दिखाई पड़ जाती है । जब आगन्तुक ने यह सुना, तो बड़े जोर से हँस पड़ा, कहा- दादी ! सुई घर में खोई है, तो सड़क पर ढूँढ़ने से क्या फायदा ? जहाँ खोई है, वहीं तो मिलेगी वह !
इस उदाहरण से भी यही ज्ञात होता है कि जहाँ हम भूल कर रहे हैं, वहीं पर समाधान भी ढूँढ़ना चाहिए। यह नहीं कि भूल कहीं, खोज कहीं ! कहीं हम भी बुढ़िया की तरह मूर्ख तो नहीं बन रहे हैं?
मनुष्य अन्दर से अशान्त है, व्याकुलता अनुभव कर रहा है, अपने को खोयाखोया सा अनुभव कर रहा है । अब यदि वह अशान्ति का समाधान शान्ति के द्वारा करना चाहता है, अपना जो 'निज' है, उसे पाना चाहता है, तो उसे अपने अन्तर्मन में ही खोजना चाहिए। या बाहर में ? घर में यदि अन्धेरा है, तो वहाँ दीपक जलाकर प्रकाश करना चाहिए। दूसरी जगह भटकने से तो वह भटकता ही रह जायगा ! तो हमारे इस प्रश्न का, जो कि हमने प्रारम्भ में ही उठाया है-कि कल्याण और उन्नति का मार्ग क्या है ? उसका समाधान भी अपने अन्तर में ही ढूँढ़ना चाहिए ! थोड़ी-सी गहराई में उतर कर यदि हम देखेंगे, तो इसका उत्तर आसानी से मिल जाएगा। तुम्हारे कल्याण का मार्ग तुम्हारे अन्तर में ही है। तुम्हारे द्वारा ही तुम्हारी उन्नति हो सकती है। गीता के शब्दों में- 'उद्धरेदात्मनात्मानं ' अर्थात् अपने से अपना उत्थान करो। और भगवान् महावीर की वाणी में भी- 'अप्पाण मेवमप्पाणं' - आत्मा से आत्मा का कल्याण करना चाहिए - यही सूत्र ध्वनित होता है। तात्पर्य यह है कि कल्याण और उन्नति के लिए हमारी अन्तरंग साधना, सत्य, शील एवं सदाचार ही कारण बन सकते हैं। जब यह साधना का मार्ग और उसका मर्म, हम समझ लेंगे, तो फिर हमें बाहर भटकना नहीं पड़ेगा । असत्य का समाधान सत्य के द्वारा मिलता है। जैसा कि बुद्ध ने
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