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। कल्याण का मार्ग
अनादिकाल से मनुष्य के सामने यह प्रश्न रहा है कि कल्याण का. मार्ग क्या है? कैसा है ? इस प्रश्न का अनेक प्रकार से समाधान करने का प्रयत्न भी किया गया है। भारतीय साहित्य में इसके उत्तर एवं समाधान भरे पड़े हैं। अनेक चिन्तकों, विचारकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से इसका जो समाधान करने का प्रयत्न किया, उससे हजारों शास्त्रों का निर्माण हो गया। मानव मन के इस विकट प्रश्न पर आज भी विचार उठ रहे हैं, शंकाएँ और तर्कणाएँ खड़ी हो रही हैं कि आखिर कल्याण के लिए वह किस मार्ग का अवलम्बन ले। जहाँ प्रश्न है, समाधान भी वहीं है :
मुख्य बात यह है कि समाधान वहीं खोजना चाहिए, जहाँ समस्या खड़ी हुई हो, जहाँ पर समस्या का जन्म हुआ है, वहीं पर समाधान का भी प्रस्फुटन होगा। जहाँ से विकल्प उठकर मन को अशान्त कर रहे हैं, उद्वेलित कर रहे हैं, वहीं पर उनका निराकरण करने वाली शक्ति का भी उदभव होगा। यदि प्रश्न अन्दर का है और उत्तर बाहर खोजें तो, आज क्या, अनन्त-अनन्त काल तक भी समाधान नहीं मिल पाएगा! शरीर में एक जगह दर्द पैदा हो गया, वैद्यराज को दिखाया, तो उन्होंने बता दिया कि वायु का दर्द है, सर्दी का दर्द है, या अन्य किसी कारण से हुआ है। अमुक तेल की मालिश करो, आराम हो जाएगा। तेल भी बड़ा कीमती है, आप ले भी आए और मालिश भी करने बैठे। किन्तु दर्द पीठ में है, आपने सोचा पीठ पर हाथ नहीं पहुँच रहा है, चलो पेट पर ही मालिश करलो, आखिर शरीर तो एक ही है न! तो शुरू कर दी आपने मालिश,! दो चार मिनट भी हुए नहीं कि पीठ में तो दर्द छूटा नहीं, पेट में और उठना शुरू हो गया। आप घबरा गए—अरे! यह क्या ? कैसा बेवकूफ वैद्य है ? कैसी दवा बताई उसने ? उलटा दर्द और पैदा कर दिया इसने! तो सोचिए, यह मूर्खता वैद्य की है या आपकी? वैद्य ने तो निदान ठीक ही किया था, किन्तु आपने उसका प्रयोग गलत कर लिया, पीठ के दर्द के लिए पीठ में ही तो मालिश करनी पड़ेगी न! यह तो नहीं होता कि दर्द कहीं, और दवा कहीं। रोग कहीं, और उपचार कहीं। गलती कहीं, और उसका अनुसन्धान कहीं और हो।
मैंने एक कहानी भी इस तरह की पढ़ी थी। एक बुढ़िया थी-होगी सत्तरपचहत्तर वर्ष की, किन्तु फिर भी निठल्ली नहीं बैठी रहती थी. वह ! यह नहीं कि बुढ़ापा आ गया, अब तो जाने के दिन हैं, अब क्या काम करें? वास्तव में जब आदमी निकम्मा रहता है, तो उसको बुढ़ापा और बीमारी सभी काटने दौड़ते हैं। यदि मन
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