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________________ २३०चिंतन की मनोभूमि तरह नहीं मिल रहा है। एक बार आत्मा की मलिनता का बोध प्राप्त कर लो और फिर बस अब उस मलिनता को दूर करने में जुट जाओ। हर क्षण मलिनता का रोना, रोने से क्या लाभ है ? मलिनता रोने के लिए नहीं; दृढ़ता के साथ दूर करने के लिए है। . जैसा चाहो वैसा बनो : __ जैन दर्शन इस बात पर विश्वास करता है कि आत्मा जैसा चिंतन-मनन करेगी, जिन लेश्या और योगों में वर्तन करेगी, वैसा ही बन जाएगी। यदि आप के मनोयोग शुद्ध और पवित्र रहते हैं, आपकी लेश्याएँ प्रशस्त रहती हैं, तो कोई कारण नहीं कि आप गंदे और निकृष्ट बनें। संस्कृत में एक सूक्ति है-"यद् ध्यायति, तद् भवति" प्राणी जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। जो प्राणी रातदिन पाप ही पाप के विचारों में पड़ा रहेगा, वह पापी बन जाएगा और जो अपने शुद्ध और निर्मल स्वरूप का चिंतन करेगा, वह उस ओर प्रगति करता जाएगा। आत्मा का जो मूल स्वरूप है, उसमें तो कभी कोई परिवर्तन नहीं आ सकता, उसके भीतर में तो कभी अपवित्रता का कोई दाग नहीं बैठ सकता। जो अपवित्रता है, जो गंदगी है, वह सिर्फ ऊपर की है। अनन्तानन्त काल बीत गया, किन्तु, अब तक उसी गंदगी में पड़ी आत्मा अपना स्वरूप भूलती रही है, और संसार का चक्कर काटती रही है। अब अपने शुद्ध स्वरूप का चिंतन करके, उसे प्रकट करने का प्रयत्न करना चाहिए। देह, इन्द्रिय और मन की बात के नीचे छिपे उस आत्मारूपी स्वर्ण को अलग निखारना चाहिए। यही सम्यक्त्व है, यही परमज्ञान है और यही उस अनन्त प्रकाश और अनन्त सुख का राजमार्ग है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि सुख आत्मा की निर्वेद-नि:स्पृह अवस्था है। सुख शरीर को कभी भी प्राप्त नहीं होता, बल्कि आत्मा में अनुभूत होता है। अतः सुख का वास्तविक परिज्ञान करने के लिए, उसका प्रशस्त-पथ, उसका राजमार्ग है आत्मा को मल-कषायों से दूर कर, नवे विकसित सौरभमय पुष्प-पंखुड़ी की तरह खिला पाना है, अन्य कुछ नहीं। sindinhin... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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