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________________ सुख का राज मार्ग २२९ मन के विकल्पों का जाल ही बहुत विकट है। मन की गति बड़ी विचित्र है। यह इतना शैतान है कि आसानी से अधिकार में नहीं आ पाता और जब उसके ही विकल्प परेशान कर रहे हैं, वही निर्मल नहीं हुआ है, समभाव उसे नहीं छू सका है, तो फिर संसार भर के मन के विकल्पों को जानने का ठेका हम अपने सिर क्यों लें ! उस भार से आत्मा को शान्ति नहीं, अशान्ति ही मिलेगी। अपना स्वरूप : मन के ज्ञान की उपलब्धि के पूर्व संसार के राग-द्वेष के विष से मुक्त रहने के लिए वीतराग भाव की आवश्यकता है। यदि वीतराग भाव है, तो मन का ज्ञान भी ठीक है और दूसरे ज्ञान भी ठीक है, यदि वह नहीं है, तो कोई भी ज्ञान होगा, वह परेशानी का ही कारण बनेगा। इसीलिए मन:पर्यव ज्ञान और अवधिज्ञान से पहले आत्मबोध कराने वाले सम्यक् श्रुत ज्ञान का नाम आता है। सम्यक् श्रुत ज्ञान के द्वारा इस बात की जानकारी होती है कि मैं कौन हूँ ? मेरा क्या स्वरूप है ? और मेरी जीवन यात्रा की मंजिल क्या है ? शास्त्रों के अध्ययन एवं श्रवण के द्वारा ही साधक को पता लगता है कि शरीर और आत्मा एक नहीं हैं। अतः मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ। आत्मा ही नहीं, शुद्ध आत्मा हूँ, परमात्मा हूँ। मैं अजरअमर निर्विकार शुद्ध चैतन्य हूँ। साधारणतया आत्मा का बोध अभव्य एवं मिथ्या दृष्टि को भी हो जाता है। किन्तु वह आत्मा के परमात्मभाव का बोध नहीं कर सकता, शुद्ध-सच्चा विश्वास नहीं कर सकता। उसकी धर्मक्रियाओं के पीछे भी सिर्फ भौतिक अभिलाषाएँ, स्वर्ग की प्राप्ति, यश और कीर्ति आदि की आकांक्षाएँ ही अधिक रहती हैं। उसके ज्ञान के पीछे अपने शुद्ध स्वरूप का भान नहीं रहता कि मैं निर्मल निर्विकार ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ, मैं ही परमात्मा हूँ। काम, क्रोध, लोभ आदि मेरे स्वभाव नहीं, बल्कि विभाच हैं। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ज्ञान स्वरूप है, शान्ति और सुख का स्वरूप है। आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करके भी कुछ लोग यह सोचने लग जाते हैं कि ''मैं तो पापी हूँ, क्षुद्र हूँ मेरा कल्याण नहीं हो सकता।" यह अपने शुद्ध मूल स्वरूप को विस्मृति है। वास्तव में स्वर्ण पर चाहे कितनी ही गंदगी डाल दी जाए, मिट्टी की कितनी ही तह पर तह जमा करदी जाएँ, किन्तु स्वर्ण का मूल स्वरूप कभी भी गंदा नहीं हो सकता। गंदी जगह पर पड़े रहने से जिस प्रकार स्वर्ण में ऊपर से गंदगी आ जाती है, उसी प्रकार वासना, मोह आदि गंदी विचारधाराओं में गोता लगाने से आत्मा पर भी गंदगी की परतें चढ़ जाती हैं, जिसे देखकर हम सोचने लग जाते हैं, हम तो पापी हैं, अशुद्ध स्वरूप हैं। वास्तव में आज के धार्मिक इन्हीं दुर्बल भावनाओं के शिकार हो रहे हैं, और इसी कारण उनकी आत्मा व बोध का तेज धुंधला पड़ रहा है, उनकी आत्मा की शक्ति क्षीण पड़ रही है। अत: उन्हें साधना का रसास्वाद ठीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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