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२२८ चिंतन की मनोभूमि भी कुछ कम महत्त्व का नहीं है। वास्तव में आत्मा का बोध होना ही, ज्ञान की सही दिशा है, इसी का नाम 'सम्यक्त्व' है। इसे हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता। यह ज्ञान उसी को होता है, जिसकी मन की चिन्तन क्रिया स्वच्छ, निर्मल एवं विशिष्ट प्रकार की होती है। स्वच्छ निर्मल मन वाला व्यक्ति ही आत्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकता है और उसकी झाँकी देख सकता है। हर किसी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं कि वह यों ही राह चलता आत्ममंदिर में प्रवेश करले और आत्म-देवता की झाँकी देख ले। इनके लिए विशिष्ट साधना एवं निर्मलता की अपेक्षा रहती है। आत्मा का यह बोध मन के माध्यम से होता है, अत: इसको परोक्ष ज्ञान अर्थात् मति ज्ञान, और श्रुत ज्ञान कहते हैं। परन्तु यह परोक्ष बोध आत्मा के प्रत्यक्ष बोध की ओर ले जाता है, आज परोक्ष है, तो वह कभी न कभी प्रत्यक्ष भी अवश्य हो जाएगा। अवधि और मनः पर्यायः
एक प्रश्न है कि गणधर गौतम स्वामी आदि को जो आत्मा का ज्ञान था, वह किस प्रकार का ज्ञान था? क्या उन्हें अवधि और मन:पर्याय ज्ञान से आत्मा का ज्ञान प्राप्त हुआ था ? क्या अवधि और मनःपर्याय ज्ञान से आत्मा का बोध हो सकता है ?
उत्तर स्पष्ट है कि अवधि ज्ञान की पहुँच आत्मा तक नहीं है। उसके निमित्त से तो बाहर के जड़ पदार्थों का अर्थात् पुद्गलों का ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है। आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। इस अर्थ में तो अवधि ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान ही श्रेष्ठ है, ताकि उसके सहारे कम से कम हमें आत्मा का ज्ञान तो प्राप्त होता है। भले ही यह परोक्ष बोध हो, परन्तु आत्मबोध तो होता है। अवधि ज्ञान से तो जड़ पुद्गल आत्मा का परोक्ष बोध भी नहीं होता। अवधि ज्ञान से संसार भर के जड़ पुद्गल पदार्थों का ज्ञान तो हो जाएगा, किन्तु सम्यक् तत्त्व श्रुत ज्ञान से उत्पन्न आत्मबोध के अभाव में वह ज्ञान राग-द्वेष का ही कारण बनेगा। तब राग-द्वेष के विकल्पों के प्रवाह में आत्मा को मंभाल कर रोकने वाला कोई नहीं रहेगा। अवधि ज्ञान कोई बुरा नहीं है, उस ज्ञान को मही दिशा देने वाला सम्यक् तत्त्व श्रुत ज्ञान ही है। यदि वह नहीं है, तो अवधि ज्ञान बुर रास्ते पर जा सकता है। अवधि ज्ञान तो देवताओं में भी होता है, परन्तु आत्मबोध के अभाव में उनकी भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। जिसे हम स्वर्ग कहते हैं और सुख की कल्पना का एक बहुत बड़ा आधार बनाते हैं, उस स्वर्ग में भी आत्मबोधशून्य मिथ्यादृष्टि, देवताओं में परस्पर विग्रह-चोरी आदि के दुष्कर्म होते रहते हैं। सम्यक् श्रुत के अभाव में, यह अवधिज्ञान भी अज्ञान ही माना गया है। इससे आत्मा का कोई कल्याण नहीं होता।
मनःपर्यव ज्ञान सम्यक्त्व और साधुत्व के आधार के बिना होता ही नहीं है, अत: यह श्रेष्ठ ज्ञान है। परन्तु यह भी आत्मबोध नहीं कर सकता है। इस ज्ञान से अन्य - प्राणी के मानसिक विकल्पों का ज्ञान हो जाता है, परन्तु इससे भी क्या लाभ ? अपने
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